आज 25 दिसम्बर ’भारत रत्न’ पं. मदनमोहन मालवीय जी की जन्मतिथि है। सारा देश उन्हें ’महामना’ इस नाम से जानता है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पं. मदन मोहन मालवीय का निधन 12 नवम्बर 1946 को हुआ था। स्वतंत्र भारत में अनेक लोगों को ’भारत रत्न’ से गौरवान्वित किया गया। अनेक सालों तक देश के शासन की धुरा नेहरू-गांधी परिवार के पास ही रही लेकिन महामना जैसे स्वतंत्रता आंदोलन के पुरोधा, महान समाज सुधारक , देशभक्त को भारत रत्न देने का उन्होंने कभी सोचा भी नहीं और पुरूस्कृत किया भी नहीं।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्ववाली भारत सरकार ने 24 दिसम्बर 2014 को उन्हें ’भारत रत्न’ से अलंकृत किया। अभी कुछ दिन पूर्व पं. मदन मोहन मालवीय जी के पोते पूर्व न्यायाधीश श्री गिरधर मालवीय जी को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का कुलपति भारत सरकार ने नियुक्त किया।पंडित मदन मोहन मालवीय जी के नाम के साथ ’महामना’ विशेषण का प्रयोग किया जाता है। महामना का अर्थ ऊंचे या महान मन वाला। वेदों में कुछ मन्त्र ऐसे आए हैं जिनमें मन की प्रकृति का विवेचन करते हुए अन्त में कहा गया है कि ’तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ वह मेरा मन सदा कल्याणकारी संकल्पों से भरा रहे। महामना वही व्यक्ति हो सकता है जिसके संकल्प सदा महान और लोककल्याण की भावना से परिपूर्ण हों। चाहे शिक्षा , राजनीति का मालवीय जी का कोई भी विरोधी उन पर यह आरोप नहीं लगा सकता था कि उन्होंने कोई भी कार्य जनता के विरूद्व किया हो।
जन्म और शिक्षा
जन्म 25 दिसंबर 1861 को हुआ। उनके पूर्वज मध्य प्रदेश के मालवा के थे और संस्कृत के विद्वान थे। जीवनयापन के लिए भागवत कथा का वाचन करते थे। परिजनों के मालवा से आकर यहां बसने के कारण वे ’मालवीय’ कहलाए।
वे अच्छे कवि थे उन्होंने स्कूली जीवन में कविताएं लिखीं , उनकी कुछेक कविताएं अखबारों में प्रकाशित भी हुयीं।
बी.ए. करने के पश्चात 1884 में इलाहाबाद जिला स्कूल में स्कूल में शिक्षक हो गए।
दिसम्बर 1886 में मालवीय जी को काॅंग्रेस के दूसरे अधिवेशन में शिरकत करने का मौका मिला। उन्होंने कौंसिल में प्रतिनिधित्व दिए जाने के मुद्दे पर बड़ा ही धारदार वक्तव्य दिया।
उनकी भाषा शैली और कथ्य ने न केवल दादाभाई नौरोजी को प्रभावित किया बल्कि इलाहाबाद के नजदीक कालाकाॅकर राज्य के शासक राजा रामपाल सिंह भी उनके मुरीद हो गये।
मालवीय जी की विषेषतायें
ईश्वरभक्ति और देशभक्ति मालवीयजी के जीवन के दो मूलमंत्र थे।
वे सार्वजनिक कार्यों के लिए जीवनभर साधन जुटाते रहे और ’भिक्षुकों के राजकुमार’ कहलाए।
सात्विक जीवन जीने वाले मनीषी, जनसाधारण के सेवक।
उच्चकोटि के वक्ता।
आहार विहार में सरलता और सात्विकता के प्रेमी थे।
प्रख्यात शिक्षाशास्त्री , जाने माने स्वतंत्रता सेनानी थे। गांधी जी उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे।
वे ’राष्ट्रगुरू’ हैं।
वे नैतिकता के पुजारी थे।
उनके मन में प्राचीन संस्कृति के प्रति गहरी रूचि थे।
आजादी के आंदोलन मे उनकी भूमिका इतनी बेमिसाल थी कि जीवन के उत्तरार्ध में उन्हें ’महामना’ कहा जाने लगा।
1930 में हुए पहले गोलमेज सम्मेलन में भी मालवीय जी ने हिस्सेदारी की थी। उनका चर्चित नारा था ’सत्यमेव जयते’।
मालवीय जी का योगदान
मालवीय जी किसी भी सूरत में देश के विभाजन के खिलाफ थे। 1920 के आरंभ में हुए खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस के शिरकत करने का भी उन्होंने विरोध किया था। उनका मानना था कि देश की अखंडता को बचाकर ही हम एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभर सकते हैं। उन्होंने गांधी जी को चेताया था कि वे स्वतंत्रता के नाम पर देश के विभाजन का समझौता न करें, क्योंकि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार और यह हमें मिलनी ही है।
गांधी जी के खिलाफत आंदोलन के खिलाफ थे। 1920 में अवज्ञा आंदोलन के दौरान चैरी चैरा कांड हुआ , उसको मालवीय जी ने ही बारडोली में गांधी जी को पत्र भेजकर वापस लेने को कहा।
नागरिकता की भावना मालवीय जी में कूट कूट कर भरी हुयी थी। एक बार वे शिमला में माल रोड पर भ्रमण कर रहे थे कि बीच मार्ग में उनको घोड़े की नाल पड़ी दिखाई दे गयी। उनको आभास हुआ कि नाल किसी भी नंगे पैर चलते हुए व्यक्ति के पैर में गड़ गयी तो अनर्थ हो जायेगा। उन दिनों अधिकांश भारतीय नंगे पैर ही चला करते थे। मालवीय जी बीच सड़क पर गए और नाल को उठाकर ऐसे स्थान पर डाल दिया जहां से किसी को कोई हानि न हो सके।
स्कूली जीवन में पढ़ाई के साथ मल्ल विद्या और व्यायाम में उनकी विशेष रूचि थी, यह रूचि थी आजीवन बनी रही। उन्होंने अपने संगी साथियों का एक दल बना रखा था, जिसके नेता वे स्वयं थे। यह दल गुण्डों और असामाजिक तत्वों से समय समय पर भिड़कर उन्हें राह दिखाने का काम किया करता था। इसके फलस्वरूप सामाजिक मेलेां, उत्सवों, सभाओं आदि में वे भीड़ नियंत्रित करने का काम करते थे। समय समय पर होली , दीवाली, कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी आदि त्यौहार और पर्वों का स्वयं भी आयोजन कर उन्हें सफल बनाते।
बी.ए. में पढ़ते समय वे सामाजिक गतिविधियों में ज्यादा समय लगाते थे जिसके चलते उनका पढ़ाई की ओर ध्यान कम रहता था। उन दिनों प्रयाग में कोई विश्वविद्यालय नहीं था। कलकत्ता विश्वविद्यालय के अंतर्गत सारे काॅलेज थे। और उत्तरी भारत का केन्द्र आगरा होता था। 1883 में आगरा परीक्षा देने गये वहां वे अनुत्तीर्ण हो गये। बुरा तो लगा किन्तु साहस नहीं छोड़ा। अगले वर्ष खूब परिश्रम किया , परीक्षा में बैठे और उत्तीर्ण हो गये।