अमृतसर में सुप्रसिद्ध दुर्गाण्या मंदिर है। इस मंदिर में स्थित सरोवर की स्थापना सिखों के सहयोग से 1925 में श्री मालवीय जी ने ही किया।
उन्होंने पत्रकार के रूप, शिक्षक के रूप में , वकील के रूप में गरिमा अर्जित की।
वे एकाकी नहीं अपितु सब को साथ लेकर केवल स्वयं आगे बढ़ जाना नेतृत्व की कसौटी नहीं है, अपितु सबको साथ लेकर चलना ही श्रेष्ठता की कसौटी है।
1909, 1918, 1930, 1932 में मालवीय जी भारतीय राष्ट्रीय काॅंग्रेस के अध्यक्ष चुने गये।
वे हिंदुस्थान में ’ स्काउट ’ के संस्थापकों में से एक थे।
मालवीय जी ने मंदिरों में जातिबंधन समाप्त करने के लिए जबरदस्त संघर्ष किया। दलितों के बीच में उन्होंने खूब काम किया। उनकी मर्यादा के लिए, समाज में उनकी प्रतिष्ठा के लिए, उनके सामाजिक स्वीकार के लिए मालवीय जी का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा। 200 दलितों को मंदिर प्रवेश दिलवाया।
हरिद्वार में हर की पौड़ी में गंगा जी की आरती मालवीय जी द्वारा ही आरंभ कराई गयी।
1914 में बहती गंगा का पानी हर की पौड़ी में जाने से रोकने कर भीमगोंडा में बने नहर में गिराने की ब्रिटिश सरकार ने योजना थी। गंगा भक्तों में और धर्मभक्तों में काफी नाराजगी फैली थी। इस आंदोलन की अगुवाई महामना जी ने किया और आखिरकार सरकार झुकी और गंगाधारा को अविच्छिन्न रखने का प्रबन्ध करा दिया। यह एक कठिन और चर्चित आंदोलन था। हर की पौड़ी की व्यवस्था एवं यात्रियों की सेवा -सहायता के लिए सन् 1916 में ही श्री मालवीय जी ने ’श्रीगंगासभा’ नाम से एक संस्था स्थापित की जो आज भी काफी सक्रिय और कार्यरत है।
उन्होंने वाग्वर्धिनी सभा का भी गठन किया था। समय समय पर उस सभा में विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद हुआ करता था। इससे विषयों पर सदस्यों के ज्ञान की वृद्वि होती थी।
इलाहाबाद के केवल एक ही काॅलेज था ’म्योर संेट्रल काॅलेज’ , यह उन दिनों पाश्चात्य शिक्षा का प्रमुख केन्द्र माना जाता था। इसकी ख्याति से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने उसी ’म्योर संेट्रल काॅलेज’ को इलाहाबाद विश्वविद्यालय का दर्जा दिया। यहां पढ़ने आनेवाले छात्रों की भीड़ रहती थी। उनके आवास की समस्या रहती थी। यह अभाव सभी को खटकने लगा कि एक ’हिन्दू छात्रावास’ बनाया जाए। इसलिए मालवीय जी ने प्रान्त भर प्रवास किया, उसके लिए धन एकत्रित किया और तत्कालीन गवर्नर मैकडोनल से मिलकर स्थान आदि की व्यवस्था की। अन्त में छात्रावास बन गया। उसका ’मैकडोनल हिन्दू छात्रावास’ रखा गया। सब छा इस छात्रावास को मालवीय जी का बोर्डिंग हाउस ही करते रहे। यह आज भी अपने स्थान पर स्थित है।
मालवीय जी जीवन कई मिशालें हैं जिनसे हम सीख सकते हैं। उनके सामने जो लक्ष्य था, जैसे उन्होंने काम किया और सफलता पाई , इन सबसे हम सबक ले सकते हैं। हम मूर्तियां खड़ी करें, संस्थायें बनाए यह तो ठीक है, लेकिन आखिर में सबक सीखें उनकी जिंदगी से, उनके काम से और सीखकर उसी रास्ते पर चलें, आजकल के जमाने में उसको अपनाकर चलें और आगे बढ़े तो यही उनका सबसे बड़ा स्मारक हो सकता है। आजकल के नवयुवक मालवीय जी के जीवन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो यही सीखनी चाहिए कि मनुष्य उने सम्मुख एक लक्ष्य निर्धारित, एक उद्देश्य निर्धारित करें, और फिर उसके लिए काम करना आरंभ कर प्राणपण से लग जाएं तथा जब तक सिद्वि प्राप्त न हो जाए तब तक कार्य में लगा रहे।
मालवीय जी के विशेष कार्य
अमृतसर
में सुप्रसिद्ध दुर्गाण्या मंदिर है। इस मंदिर में स्थित सरोवर की स्थापना सिखों
के सहयोग से 1925 में
श्री मालवीय जी ने ही किया।
उन्होंने
पत्रकार के रूप, शिक्षक
के रूप में , वकील के रूप में
गरिमा अर्जित की।
वे
एकाकी नहीं अपितु सब को साथ लेकर केवल स्वयं आगे बढ़ जाना नेतृत्व की कसौटी नहीं है,
अपितु सबको साथ लेकर चलना ही श्रेष्ठता की
कसौटी है।
1909, 1918, 1930, 1932 में मालवीय जी भारतीय राष्ट्रीय
काॅंग्रेस के अध्यक्ष चुने गये।
वे हिंदुस्थान में ’ स्काउट ’ के
संस्थापकों में से एक थे।
मालवीय जी ने मंदिरों में जातिबंधन
समाप्त करने के लिए जबरदस्त संघर्ष किया। दलितों के बीच में उन्होंने खूब काम
किया। उनकी मर्यादा के लिए, समाज
में उनकी प्रतिष्ठा के लिए, उनके
सामाजिक स्वीकार के लिए मालवीय जी का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा। 200 दलितों को मंदिर प्रवेश दिलवाया।
हरिद्वार में हर की पौड़ी में गंगा जी की आरती मालवीय जी द्वारा
ही आरंभ कराई गयी।
1914 में बहती गंगा का पानी हर की पौड़ी में जाने से रोकने कर
भीमगोंडा में बने नहर में गिराने की ब्रिटिश सरकार ने योजना थी। गंगा भक्तों में
और धर्मभक्तों में काफी नाराजगी फैली थी। इस आंदोलन की अगुवाई महामना जी ने किया
और आखिरकार सरकार झुकी और गंगाधारा को अविच्छिन्न रखने का प्रबन्ध करा दिया। यह एक
कठिन और चर्चित आंदोलन था। हर की पौड़ी की व्यवस्था एवं यात्रियों की सेवा -सहायता
के लिए सन् 1916 में
ही श्री मालवीय जी ने ’श्रीगंगासभा’ नाम से एक संस्था स्थापित की जो आज भी काफी
सक्रिय और कार्यरत है।
उन्होंने
वाग्वर्धिनी सभा का भी गठन किया था। समय समय पर उस सभा में विभिन्न विषयों पर
वाद-विवाद हुआ करता था। इससे विषयों पर सदस्यों के ज्ञान की वृद्वि होती थी।
इलाहाबाद
के केवल एक ही काॅलेज था ’म्योर संेट्रल काॅलेज’ , यह उन दिनों पाश्चात्य शिक्षा का प्रमुख
केन्द्र माना जाता था। इसकी ख्याति से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने उसी ’म्योर
संेट्रल काॅलेज’ को इलाहाबाद विश्वविद्यालय का दर्जा दिया। यहां पढ़ने आनेवाले
छात्रों की भीड़ रहती थी। उनके आवास की समस्या रहती थी। यह अभाव सभी को खटकने लगा
कि एक ’हिन्दू छात्रावास’ बनाया जाए। इसलिए मालवीय जी ने प्रान्त भर प्रवास किया,
उसके लिए धन एकत्रित किया और तत्कालीन
गवर्नर मैकडोनल से मिलकर स्थान आदि की व्यवस्था की। अन्त में छात्रावास बन गया।
उसका ’मैकडोनल हिन्दू छात्रावास’ रखा गया। सब छा इस छात्रावास को मालवीय जी का
बोर्डिंग हाउस ही करते रहे। यह आज भी अपने स्थान पर स्थित है।
मालवीय जी जीवन कई मिशालें हैं जिनसे हम
सीख सकते हैं। उनके सामने जो लक्ष्य था, जैसे उन्होंने काम किया और सफलता पाई , इन सबसे हम सबक ले सकते हैं। हम
मूर्तियां खड़ी करें, संस्थायें
बनाए यह तो ठीक है, लेकिन
आखिर में सबक सीखें उनकी जिंदगी से, उनके काम से और सीखकर उसी रास्ते पर चलें, आजकल के जमाने में उसको अपनाकर चलें और
आगे बढ़े तो यही उनका सबसे बड़ा स्मारक हो सकता है। आजकल के नवयुवक मालवीय जी के
जीवन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो यही सीखनी चाहिए कि मनुष्य उने
सम्मुख एक लक्ष्य निर्धारित, एक
उद्देश्य निर्धारित करें, और
फिर उसके लिए काम करना आरंभ कर प्राणपण से लग जाएं तथा जब तक सिद्वि प्राप्त न हो
जाए तब तक कार्य में लगा रहे।
मालवीय जी के विशेष कार्य
अमृतसर
में सुप्रसिद्ध दुर्गाण्या मंदिर है। इस मंदिर में स्थित सरोवर की स्थापना सिखों
के सहयोग से 1925 में
श्री मालवीय जी ने ही किया।
उन्होंने
पत्रकार के रूप, शिक्षक
के रूप में , वकील के रूप में
गरिमा अर्जित की।
वे
एकाकी नहीं अपितु सब को साथ लेकर केवल स्वयं आगे बढ़ जाना नेतृत्व की कसौटी नहीं है,
अपितु सबको साथ लेकर चलना ही श्रेष्ठता की
कसौटी है।
1909, 1918, 1930, 1932 में मालवीय जी भारतीय राष्ट्रीय
काॅंग्रेस के अध्यक्ष चुने गये।
वे हिंदुस्थान में ’ स्काउट ’ के
संस्थापकों में से एक थे।
मालवीय जी ने मंदिरों में जातिबंधन
समाप्त करने के लिए जबरदस्त संघर्ष किया। दलितों के बीच में उन्होंने खूब काम
किया। उनकी मर्यादा के लिए, समाज
में उनकी प्रतिष्ठा के लिए, उनके
सामाजिक स्वीकार के लिए मालवीय जी का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा। 200 दलितों को मंदिर प्रवेश दिलवाया।
हरिद्वार में हर की पौड़ी में गंगा जी की आरती मालवीय जी द्वारा
ही आरंभ कराई गयी।
1914 में बहती गंगा का पानी हर की पौड़ी में जाने से रोकने कर
भीमगोंडा में बने नहर में गिराने की ब्रिटिश सरकार ने योजना थी। गंगा भक्तों में
और धर्मभक्तों में काफी नाराजगी फैली थी। इस आंदोलन की अगुवाई महामना जी ने किया
और आखिरकार सरकार झुकी और गंगाधारा को अविच्छिन्न रखने का प्रबन्ध करा दिया। यह एक
कठिन और चर्चित आंदोलन था। हर की पौड़ी की व्यवस्था एवं यात्रियों की सेवा -सहायता
के लिए सन् 1916 में
ही श्री मालवीय जी ने ’श्रीगंगासभा’ नाम से एक संस्था स्थापित की जो आज भी काफी
सक्रिय और कार्यरत है।
उन्होंने
वाग्वर्धिनी सभा का भी गठन किया था। समय समय पर उस सभा में विभिन्न विषयों पर
वाद-विवाद हुआ करता था। इससे विषयों पर सदस्यों के ज्ञान की वृद्वि होती थी।
इलाहाबाद
के केवल एक ही काॅलेज था ’म्योर संेट्रल काॅलेज’ , यह उन दिनों पाश्चात्य शिक्षा का प्रमुख
केन्द्र माना जाता था। इसकी ख्याति से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने उसी ’म्योर
संेट्रल काॅलेज’ को इलाहाबाद विश्वविद्यालय का दर्जा दिया। यहां पढ़ने आनेवाले
छात्रों की भीड़ रहती थी। उनके आवास की समस्या रहती थी। यह अभाव सभी को खटकने लगा
कि एक ’हिन्दू छात्रावास’ बनाया जाए। इसलिए मालवीय जी ने प्रान्त भर प्रवास किया,
उसके लिए धन एकत्रित किया और तत्कालीन
गवर्नर मैकडोनल से मिलकर स्थान आदि की व्यवस्था की। अन्त में छात्रावास बन गया।
उसका ’मैकडोनल हिन्दू छात्रावास’ रखा गया। सब छा इस छात्रावास को मालवीय जी का
बोर्डिंग हाउस ही करते रहे। यह आज भी अपने स्थान पर स्थित है।
मालवीय जी जीवन कई मिशालें हैं जिनसे हम
सीख सकते हैं। उनके सामने जो लक्ष्य था, जैसे उन्होंने काम किया और सफलता पाई , इन सबसे हम सबक ले सकते हैं। हम
मूर्तियां खड़ी करें, संस्थायें
बनाए यह तो ठीक है, लेकिन
आखिर में सबक सीखें उनकी जिंदगी से, उनके काम से और सीखकर उसी रास्ते पर चलें, आजकल के जमाने में उसको अपनाकर चलें और
आगे बढ़े तो यही उनका सबसे बड़ा स्मारक हो सकता है। आजकल के नवयुवक मालवीय जी के
जीवन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो यही सीखनी चाहिए कि मनुष्य उने
सम्मुख एक लक्ष्य निर्धारित, एक
उद्देश्य निर्धारित करें, और
फिर उसके लिए काम करना आरंभ कर प्राणपण से लग जाएं तथा जब तक सिद्वि प्राप्त न हो
जाए तब तक कार्य में लगा रहे।