अब कविता से चीन समस्या का हल

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता के साथ हाल में ऐसा हुआ।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में गलवान घाटी में नीमू नाम की जगह पर जाकर भारतीय सैनिकों की हौसला अफजाई की। उन्होंने दिनकर की कविता ‘कलम आज उनकी जय बोल’ की कुछ लाइनें सुनाईं।
जला अस्थियां बारी-बारी,चिटकाई जिनमें चिंगारी,जो चढ़ गए पुण्य वेदी पर,लिए बिना गर्दन का मोल,कलम आज उनकी जय बोल।
उन्होंने आगे सुनाया-जिनके सिंहनाद से सहमी धरती,रही अब तक डोल,कलम आज उनकी जय बोल!
जो दिनकर पूरे जीवन कांग्रेसी रहे, जिन्हें देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का काफी स्नेह मिला, जिन्हें कांग्रेस ने 1952 से 1964 यानी 12 साल तक राज्यसभा सदस्य बनाए रखा। और इसके तुरंत बाद 1965 से 1971 तक भारत सरकार ने हिंदी सलाहकार के पद से नवाजा। उन्हीं दिनकर की कविता आज कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाली बीजेपी के काम आ रही है।मोदी इससे पहले भी अलग-अलग मौकों पर राष्ट्रकवि की कविताओं का जिक्र करते रहे हैं। उनके भाषणों में दिनकर की कविताएं आई हैं। प्रधानमंत्री बनने से पहले भी। इस लिहाज से दिनकर दूसरे बीजेपी नेताओं के भी प्रिय रहे हैं। लेकिन दिनकर ही क्यों?आजादी की लड़ाई के दिनों में कई राष्ट्रवादी कवि हुए। फिर दिनकर की कविताएं और महाकाव्य- रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा, हुंकार- की पंक्तियां ही बीजेपी के कई नेताओं को भाषणों में क्यों बार-बार आती रहती है? ताउम्र कांग्रेसी रहे दिनकर आखिर बीजेपी की राजनीति के लिए इतने जरूरी क्यों हैं?इस पर अब विचार की जरूरत है।
पहली बात तो यह कि दिनकर की कविताओं में ‘वीर-रस’ खूब है। दूसरी, ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में वह सामंजस्य का दर्शन पेश करते हैं। वीर और शक्तिवान होकर ही सामंजस्य और अन्य भारतीय मूल्यों को जीवित रखा जा सकता है, ऐसा मानते थे दिनकर। वह अपनी एक कविता में कहते हैं-‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।उसका क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत सरल हो।’यानी वह मानते थे कि क्षमा जैसे भारतीय मूल्य की रक्षा ताकतवर होकर ही की जा सकती है। बीजेपी शक्तिवान और सबल हिंदुत्व की पक्षधर है। इसलिए पार्टी को यह राजनीतिक भाषा सूट करती है। इसलिए वह कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए दिनकर का सहारा लेती है।नरेंद्र मोदी ने भी नीमू में दिए गए अपने भाषण में कहा था कि शांति वही दे सकता है, जो सबल हो। कमजोर शांति की रक्षा नहीं कर सकता। अगर वैचारिक रूप से देंखे तो प्रधानमंत्री की यह सोच दिनकर की ही तरह सबल एवं शक्तिवान बनने को प्रेरित करती है। दिनकर की कविताओं में ओज है। उनकी ‘उर्वशी’ कविता की पंक्ति- ‘मर्त्य मानव के विजय का तुर्य हूँ मैं, उर्वशी अपने समय का सूर्य हूं मैं’, जिस ओज को अभिव्यक्त करती है, वह बीजेपी की राजनीतिक भाषा का मूल तर्ज है।फिलहाल कविता की गति भी न्यारी होती है। पता नहीं कब किसके काम आ जाए। किसकी लिखी हो, और कौन काम में लाए। सल में दिनकर का राष्ट्रवाद मैथिली शरण गुप्त और राम नरेश त्रिपाठी जैसे राष्ट्रवादी कवियों की तरह गांधीवाद की मर्यादा से नहीं बंधा था। दिनकर कांग्रेस में गांधी और नेहरू के अनुयायी भी थे, लेकिन उन्हें पार्टी की ‘गरम धारा’ बहुत प्रिय थी। उनका राष्ट्रवाद वीर-रस लिए हुए था। ऐसा ही राष्ट्रवाद बीजेपी की राजनीतिक भाषा के केंद्र में भी है।
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रवादी कविताओं में ‘विनयभाव’ है। उनकी लोकप्रिय कविता ‘जय भारत’ की पंक्तिओं में ऐसा ही विनयभाव अपको महसूस होगा। ‘जय भारत’ कविता में वे कहते हैं- जीवन-यशस्-सम्मान-धन-सन्तानसुख मर्म के मुझको परन्तु शतांश भी लगते नहीं निज धर्म के। उसी तरह, राम नरेश त्रिपाठी की राष्ट्रवादी कविताओं का भाव ‘वीर एवं ओज भाव’ की जगह आग्रह एवं करूणभाव से ओत-प्रोत है।उनके प्रेरणा एवं अह्वान की शैली नर्म है। उसका एक उदाहरण देखिए-यदि रक्त बूंद भर भी होगा कहीं बदन मेंनस एक भी फड़कती होगी समस्त तन मेंयदि एक भी रहेगी बाकी तरंग मन मेंहर एक सांस पर हम आगे बढ़े चलेंगेवह लक्ष्य सामने है पीछे नहीं टलेंगे।
बीजेपी के पिछले प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की कविताओं पर भी दिनकर का प्रभाव साफ दिखता है। उनकी प्रसिद्ध कविता पंक्ति ‘हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं,’ में दिनकर जी की कविताओं के ओज जैसा ही भाव दिखता है। उनकी कविता ‘हिंदू तन-मन हिंदू जीवन’ में भी दिनकर की रश्मिरथी के छंद जैसा ओज आपको मिल जाएगा। इसी कविता में उनकी पंक्ति ‘मैं शंकर का वह क्रोधानलध्करता जगती क्षार-क्षार…… डमरू का वह प्रलय ध्वनि हूं’ में ओजपूर्ण आह्वान किया गया।
इसी कविता में‘रणचण्डी की अतृप्त प्यास,मैं दुर्गा का उन्मत हास!’उस ओज एवं वीर भाव को जगाता है जो दिनकर की कविताओं में भी उनकी शक्ति बनकर आता है। बीजेपी के अन्य नेता भी जो साहित्यकार रहे हैं, कविताएं लिखते हैं, उनके फॉर्म में भी दिनकर के काव्य रूप से संवाद, बातचीत और आवाजाही आप देख सकते हैं। विष्णु कान्त शास्त्री और अन्य बीजेपी के स्थानीय नेता भी अपनी रचनाओं में ओज एवं वीर भाव का प्रयोग करते हैं।इसलिए आज जब चीन से सरहद पर भारत का टकराव चल रहा है तो राष्ट्रकवि और भी प्रासंगिक हो गए हैं। जिस नेहरू ने उन्हें सदा स्नेह, सम्मान एवं महत्व दिया, 1962 के चीन युद्ध के कारण ही वे उस नेहरू के भी विरोधी जैसा दिखने लगे थे। तब दिनकर, नेहरू की सौम्यता के आलोचक हो गए थे।कहते हैं कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के वक्त उन्होंने नेहरू की आलोचना करते हुए अपनी कविता की ये पंक्तियां सुनाई थीं-रोको युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्गाधीर!फिरा दे हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन-भीमवीर!
वह इस कविता के माध्यम से शायद नेहरू को युधिष्ठिर के समान सौम्य, युद्ध से बचने वाला बताकर उनकी उस वक्त में बन आई अप्रासंगिकता की तरफ इशारा तो करते ही हैं। साथ ही साथ फिर से गांडीव-गदा, जैसे अस्त्रों के साथ अर्जुन-भीम जैसे वीर की जरूरत बताते हैं।1962 के भारत-चीन युद्ध ने नेहरू के साथ समूचे देशवासियों को बड़ा शॉक दिया था। दिनकर उसी दुखद अपमान से निकलने के लिए शायद तब शक्तिवान और वीर भारत की संकल्पना पेश कर रहे थे।देखना होगा कि बीजेपी चीन के साथ विवाद में किस तरह अर्जुन और भीम के नेतृत्व वाला भारत बनाने में सफलता हासिल कर पाती है। आज की दुनिया 1962 से अलग है। यहां अस्त्र, सैन्य शक्ति के साथ अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक संवाद महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में क्या हमें युधिष्ठिर, अर्जुन-भीम के मिले-जुले रूप के नए प्रतीक की जरूरत तो नहीं है?आज के भारत-चीन विवाद के संदर्भ में यह नया प्रतीक एक तरफ दिनकर की कविताओं के वीररस का संवाहक तो होगा ही, साथ ही यह मैथिलीशरण गुप्त के राष्ट्रवादी भाव की सौम्यता से भी भरा होगा।

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