आखिर इसका निहितार्थ क्या है?

 24 नवंबर को अदालती निर्देश पर हुए सर्वे के दौरान खूनी हिंसा हुई थी, जिसमें चार लोगों की मौत हो गई थी।इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय दिया, उसका मर्म यह है कि मामले में फैसला इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या सच है या फिर कौन समुदाय कितना उपद्रव करता है और वह शासन-व्यवस्था के लिए कितनी बड़ी चुनौती बन सकता है।इसका मतलब है कि चाहे ‘अन्याय’ कितना भी बड़ा हो, अदालत ‘न्याय’ से अधिक ‘शांति-सद्भावना’ को वरीयता देगी। क्या यह आदर्श न्यायिक विवेक हो सकता है? क्या कारण है कि संभल या उससे पहले ज्ञानवापी-मथुरा आदि मामले समय-समय पर उठे है और संबंधित मामले अदालतों में लंबित है?

स्वतंत्रता मिलने के बाद करोड़ों हिंदुओं को अपेक्षा थी कि सदियों से चले आ रहे ऐतिहासिक अन्यायों (सामाजिक सहित) का परिमार्जन होगा। हिंदू समाज सदियों से अस्पृश्यता रूपी कुरीति से अभिशप्त रहा है।इसके क्षरण और अपने पूर्वजों के कर्मों पर प्रायश्चित करते हुए देश के नवनिर्माताओं ने दलितों-वंचितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था दी, जो आज भी जारी है। आजादी के बाद हिंदुओं के साथ मजहब के नाम पर हुए स्थापित सांस्कृतिक अन्यायों के परिमार्जन की शुरूआत, गांधीजी और सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण से की।

साल 1951 में तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इस पुनर्निर्मित मंदिर का उद्घाटन किया था। करोड़ों हिंदुओं की आशा बढ़ी कि अब अयोध्या, काशी, मथुरा सहित अन्य अन्यायपूर्ण कृत्यों का भी ऐसा ही समाधान किया होगा।चूंकि मंदिरों के विध्वंस के पीछे इस्लामी राजनीतिक संदेश था, इसलिए महात्‍मा गांधी और सरदार पटेल के नेतृत्व में प्रारंभ हुए राजनीतिक उपक्रम को तत्कालीन कांग्रेस के भीतर भी व्यापक समर्थन मिला।हालांकि, यह कालांतर में स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कारण बेपटरी हो गया। जैसे ही गांधीजी और सरदार पटेल का देहांत हुआ, पडित नेहरू की हिंदुओं और उनकी परंपराओं के प्रति हीन-भावना मुखर हो गए।

दिल्ली में 17 मार्च 1959 को आयोजित एक सम्मेलन में उन्होंने कहा था, ”कुछ दक्षिण के मंदिरों से… मुझे उनकी सुंदरता के बावजूद घृणा होती है। मैं उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता… वे दमनकारी है, मेरी आत्मा को दबाते हैं।” इसी मार्क्स-मैकाले प्रदत्त नेहरूवादी चिंतन के गर्भ से वर्ष 1991 में पूजा स्थल (विशेष प्रविधान) अधिनियम का जन्म हुआ।तीन दशक पहले पारित इस कानून के समर्थक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा जून 2022 में दिए वक्तव्य को अपने ‘एजेंडे’ की पूर्ति हेतु उद्धत करते है, जिसमें उन्होंने कहा था, “हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना।”

पहली बात संभल मस्जिद विवाद आज का नहीं है। यह मामला वर्ष 1878 में पहली बार अदालत पहुंचा था। तब छेड़ा सिंह नामक व्यक्ति ने मुरादाबाद में इस पर मालिकाना हक का मुकदमा दाखिल किया था, जिसे ब्रितानी न्यायाधीश सर रॉबर्ट स्टुअर्ट ने निरस्त कर दिया था।उसी कालखंड में पुरातात्विक साक्ष्य होने के बाद भी ऐसा ही हश्र राम जन्मभूमि मामले में महंत रघुबर दास की याचिकाओं का भी हुआ था। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि तब अंग्रेज भारत में हिंदुओं को न्याय देने नहीं, बल्कि राज करने आए थे।

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