नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।।।
जिसे शस्त्र मार नही सकता , जिसे आग जला नही सकती ,जिसे हवा उडा नही सकती जो हमारे जीवन मे अमर है वह आत्मा आज हमारा तिरस्कार कर रही है । क्या यह सच है। शायद हां, बदलते परिवेश में हम आत्मा को भूल गये है या यूं कह लिजिये कि हम उस पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहे है जो हमारे वश में नही है। हमने पहले बांध बनाकर लोगों को पानी पीने से वंचित किया ,गैस के चूल्हे बनाकर गरीबों का निवाला छीना और अब अपने अंतरात्मा की आवाज को दबाकर इस प्रकृति के लिये एक नयी चुनौती खडी कर रहे है। हमने आदमी के मन से मरने से का भय खत्म करने की पुरजोर कोशिश की है और आदमी ने भी इस महात्वाकांक्षा में हमारा साथ दिया है। किन्तु क्या हम कभी यह भी सोचते है कि यह पूरी तरह से गलत है।
हम जानते है कि हमेशा हम जिन्दा नही रह सकते क्योंकि हम अमर नही है और जिस पैथी के चलते इस बात का हम दावा करते है कि हमने मृत्यु पर विजय पाने का रास्ता बना लिया है वह गलत है । उस पैथी से किसी रोग का पूर्णतरह आज तक इलाज नही हो पाया । हम कल भी इस परिकल्पना में गलत थे ,आज भी गलत है और इस परिकल्पना को आगे जीवित रखा तो गलत ही होगा। अगर इंसान को इस परिकल्पना को ययार्थ रूप में देखना है तो सबसे पहले उसे अपने आप मे ंझांक कर देखना होगा कि क्या वह वाकही इस लायक है कि अमर हो सके । हो सकता है कि हर इंसान इस सोच को अपने आप में एक अलग ढंग से सोचे । किन्तु जहां तक सोच की बात है तो यह स्पष्ट हो जाना कि किस तरह की जीवन शैली में हम जी रहे है। क्या इससे यह सबकुछ संभव है। इस सोच के सबसे करीब भीष्म पितामह रहे जिन्हे इच्छामत्यु का वरदान प्राप्त था किन्तु उनके अलावा यह वरदान पाने वाले सभी देव कभी पृथ्वी पर नही रहे । कुछ दैत्यों ने इसे अपनी कठोर तपस्या से पाया तो संभाल कर रख नही पाये ।उनका क्या हश्र हुआ यह हमारे सामने है। जहां तक सशरीर जाने की बात है तो एक मात्र झूठ बोलने पर महराज युधिष्ठिर के पैर का अंगूठा कट गया था। जिन्हे लोग सत्यवादी के रूप में जानते थे ।महराज हरिशचन्द्र ही एकमात्र ऐसे रहे जो फजर््ा की राह पर चलते हुए सशरीर स्वर्ग गये। क्या आज के इंसान में एक भी ऐसा है जिसमें यह गुण हो । राजभेाग का स्वाद लेने वाले जब अपने ईमान को नही बचा सके ,प्रभु के चरणों में अपने आप को समर्पित करने वाले धनोपार्जन की ओर भागने लगे । तो आम इंसान की बिसात ही क्या ?
जहां तक मत्यु पर विजय की बात है तो भारत ही नही ,विश्व के तमाम वैज्ञानिको व डाक्टरों ने उन बीमारियों का इलाज खोज निकाला है। जिससे हजारों लोग काल के मुंह में समा जाते थे।जिसे समाज में त्रासदी का नाम दिया जाता था । जैसे बाढ , जब बाढ आती थी तो एक ओर जहां लाखों लोग बेघर हो जाते थे वहीं कदावर नेताओं की लाटरी खुल जाती थी ।कुछ मर भी जाते थे ।इस अनहोनी पर रोक लगाने के लिये बांध बनाने की पहल की गयी तो लोगों को काफी राहत हुई किन्तु इससे नुकसान जो हुआ वह लाभ से कही ज्यादा था । बाढ आने के भय से लोग किनारां पर रहने से डरते थे और आज इन किनारां पर बांध बनने से रिहायशी कालोनियां का अंबार लगा हुआ है ।शहर में पानी जमा होने के सारे श्रोत बंद हो गये ,नतीजा खेत सूख कर बंजर का रूप लेते जा रहे है। पैदावार न होने से मंहगाई बढ रही है और लोग अपने बंजर खेत फैक्टरी बनाने के लिये बेच दे रहें है । नतीजा इन फैक्टरी से निकलने वाला केमिकल जमीन के नीचे जा रहा है और भूमिगत जल प्रदूषित हो रहा है और लोग इस जल को पीकर रोगी बन रहे है। शरीर रहेगी तो बिजली का लाभ मिलेगा, नही तो आप की हालत भी वही होगी जो बांध बनने के बाद भुखमरी के शिकार बने आदिवासियों की है। आप के सामने भी हथियार उठाने के सिवा कोई रास्ता नही रहेगा और बिस्लरी पीकर रहने वाले लोग आपको नक्सली बनाने में कोई कसर नही छोडेंगें ।
यही हाल दवाओं से रोगों के निजात पाने का है । रोग नही रहेगा ठीक है , लोग नही मरेंगें ठीक है किन्तु रहेंगें कहां ,यह भी सोचना चाहिये । संतुलन भी एक शब्द है जो आज के दौर में सरकार की शब्दावली से गायब हो गया है। उस पर विचार करना चाहिये नही तो सुनामी का आना भी तय है । बोझ बढने पर भूकम्प का आना भी तय है और जब वह आयेगा तो ज्वाला मुखी भी लेकर आयेगा यह भी तय है। उसमें जो विनाश होगा, वह आपदा होगी ,त्रासदी नही यह भी सच है। इस तरफ भी सोचना चाहिये। ऐसा नही है कि हम नही जानते है।हम सब जानते है अैार सोची समझी रणनीति के तहत कर रहे है ताकि देश से गरीबी नही गरीबों को खत्म किया जा सके ।लेकिन मत्यु तो अंतिम सत्य है इस पर भी ध्यान देना चाहिये । जो इन बैज्ञानिकेंा व डाक्टरों ने नही दिया । जब जो खुद अपने को नही बचा सके तेा दूसरों को क्या बचायेंगें। लगता है कि शायद हमारी आत्म मर गयी है या हम उसे मारने पर लगे हुए है।इस पर अभी बहुत कुछ सोचना बाकी है।
अब वक्त आ गया है कि हम स्वमूल्यांकन करे कि प्रकृति का जो नुकसान हमने किया है उसे कितनी जल्दी भर पायेगें और यही राय दूसरों को दे कि बीमारी से लडना है सबल बनना ठीक है लेकिन यदि बीमारी या महामारी कोखत्म कर दिया गया तो देश कहां जायेगा।यह तो प्रारभ्य है जिसे चाहे सबकुछ बर्बाद कर समझ लो या फिर अंतचेतना जागृति कर ।