बैंक अपनी साख और विश्वास बहाल करे?

विश्व पटल पर आर्थिक क्षेत्र में एवं तकनीक के स्तर पर अधिकाधिक बदलाव हो रहे हैं। भारत भी अग्रणी भूमिका निभाना चाहता है इसके लिए कई कठोर कदम उठाने की जरूरत है। नोटबंदी का फैसला इस दिशा मे शुरूआत भर है। यह न सिर्फ कालेधन भ्रष्टाचार, आतंकवाद ,नक्सलवाद पर नकेल कसने का काम करेगा, बल्कि दुनिया  के अन्य विकसित देशों के मुद्रा के बराबर रुपया को आने मे भी मददगार साबित होगा। हालांकि अभी इस व्यवस्था में काफी सुधार की दरकार है।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में बैंकों का विशेष स्थान होता है। बैंकिंग प्रणाली अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है। इसे न तो कमजोर होना चाहिए और न ही कमजोर दिखना चाहिए। दुर्भाग्यवश भारतीय बैंकिंग प्रणाली का प्रदर्शन इस स्तर पर असंतोषजनक रहा है। पारदर्शिता का अभाव और आम लोगों के साथ जुड़े होने में कुछ हद तक इसकी भूमिका कमजोर रही है। 8 नवंबर की रात को नोटबंदी की घोषणा के बाद भी बैंकिंग व्यवस्था अपनी साख बचाने में नकामयाब रही। आम आदमी जहां हजार-दो हजार के लिए कतारों में लगे रहे। वहीं, सरकार के चौकस होने और एजेसियों की तत्परता के बावजूद बड़े बडे़ लोग बैंक अधिकारियों से सांठगांठ कर अपने मतलब साधने में कामयाब रहे।

रिजर्व बैंक के अधिकारियों का पकड़ा जाना और बैंक अधिकारियों के द्वारा नए 500 और 2000 के नए नोटों के अबतक करीब 300 करोड़ रुपये आयकर अधिकारियों और जांच एजेंसियों द्वारा जब्त करना इस बात का संकेत है कि बैंकों में कुछ लोग कमीशन के लिए काम करते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा नए आर्थिक युग की शुरूआती  पहले कदम में भी पिछड़ते नजर आए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब प्रधानमंत्री नए आर्थिक युग में ले जाने के लिए साहसिक, ऐतिहासिक और सामयिक कदम उठा रहे हैं, तो वे अपनी स्वार्थ सिद्धि में जुटे हुए हैं।  राष्ट्र निर्माण में यह उम्मीद की जा रही थी कि वे आम आदमी के साथ खड़े नजर आएंगे और  अपने खोई हुई पुरानी साख को फिर से बहाल कर पाएंगे।

बड़े-बड़े उद्योगपतियों मसलन विजय माल्या जैसे लोगों को बैंक हजारों करोड़ रुपये का कर्ज दे देती है। यह विडंबना है कि एक बैंक नहीं, बल्कि 7-8 बैक विजय माल्या को करीब 8 हजार रुपये का कर्ज देती है और यह जानते हुए भी कि न ब्याज वापस आएगा और न मूलधन। फिर भी बैंक उन्हें कर्ज मुहैया कराती रही, क्योंकि वे या तो अपनी स्वार्थ सिद्ध कर रहे थे या राजनेताओं के हाथ के खिलौना थे या फिर उस कमजोर व्यवस्था का खामियाजा भुगत रहे थे, जिसे विजय माल्या जैसे लोग अपना लाभ उठाने में कामयाब रहे। विजय माल्या तो एक नाम है, बैंक अपने तकरीबन पचासी प्रतिशत कर्ज इन्हीं जैसे डिफाॅल्टरों को दे चुकी है। यह गंभीर मामला है। न सिर्फ बैंक की साख बल्कि उसकी सेहत भी खराब हो चुकी है।

प्रधानमं़त्री ने बड़ी सूझ-बझ से अपने शुरुआती दिनों में जन धन योजना के तहत आम आदमी को बैंकिग व्यवस्था से जोड़ा जिससे बैंक को हजार करोड़ रुपये की आमद हुई। इस कार्य ने उनकी सेहत ठीक करने में अहम योगदान निभाया। बैंकों के शीर्ष  पदों पर बैठे लोगों को सोचना चाहिए था कि सरकार बदली है, तो आचार और व्यवहार भी बदलेंगे। उनके भी आचरण और व्यवहार में परिवर्तन समय की मांग है।

कैशलेस सोसायटी की स्थापना तब तक नहीं हो सकती जब तक कि बैंक से जुड़े लोग इसे अपना मिशन न मान लें। भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र के निर्माण में कैशलेस ट्रांजेक्शन अहम भूमिका अदा करेगी। सरकार कैशलेस ट्रांजेक्शन के लिए लोगों को प्रेरित कर रही है। वहीं बैंकों का दायित्व है कि इसे सर्व सुलभ और सुरक्षित कैसे बनाया जाए इस दिशा मे काम करे। एकाध धोखाधड़ी की घटना भी लोगों को हतोत्साह करने के लिए काफी  है। यह सरकार के प्रयासों को विफल बना सकता है। इस राष्ट्र निर्माण यज्ञ में बैंकों के लिए अवसर है। अपनी खोई हुई साख को पुनर्स्थापित करने और देश को नई सोच और नई व्यवस्था में भागीदार बनाने की।

भारत एक विशाल देश है। लगभग 70 प्रतिशत जनता गांवों में रहती है। साढ़े 6 लाख गांवो तक बैंकों की पहुंच होनी जरूरी है। आम लोग नई सोच से जुड़ने के लिए आतुर हैं, तो बैंकों से भी उन तक पहुंचने की उम्मीद की जाती है। हालांकि यह काम कठिन है, फिर भी टेक्नोलाॅजी के इस्तेमाल से सर्वसुलभ किया जा सकता है। 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण इस उद्देश्य से किया गया था कि आम आदमी सेठ साहूकारों व बिचौलियों के चंगुल से बच पाएं और अपने पैसे सुरक्षित रख सकें। इन वर्षों में बैंकों ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं। इस अनुभव का लाभ उठाते हुए इस नए दौर में उन्हें नई भूमिका के लिए तैयार होने की जरूरत है।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मतलब गरीबों के हित की रक्षा करना था। क्या बैंकों ने इस दिशा में कार्य किया है? यह विचार करने का विषय है। बड़े लोगों को बेहिचक हजारों करोड़ रुपये उधार दे दिया जाता है। पर किसानों को मामूली रकम देने के लिए भी कई तरह के कागजातों और कार्रवाईयों को पूरा करना पड़ता है। कर्ज की रकम को अदा करने के लिए किसानों पर दबाव बनाया जाता है। भारी दबाव की वजह से किसान आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं, वहीं बड़े उद्योगपति देश से बाहर भाग जाते हैं। इन विसंगतियों को दूर करने के लिए कठोर कदम उठाने की जरूरत है। नोटबंदी के बाद से हर दिन मीडिया में बैंकों और उनके एटीएम के बाहर आम लोगों की लंबी-लंबी कतारों और उनकी परेशानियों को दिखाया जाता है। बैंककर्मियों ने उनकी परेशानियों को कम करने के लिए जो कुछ कदम उठाए हैं वे सराहनीय हैं। हालांकि उनसे और बेहतर की अपेक्षा की जा रही है। सरकार के फैसले के साथ बढ़चढ़कर हिस्सा लेना स्वागत योग्य है। साथ ही जरूरत है कि बैंक स्वयं आगे आकर राष्ट्र नवनिर्माण मे योगदान करें।

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