“धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:”। गीता के श्लोक की इस प्रथम पंक्ति का उद्भव महाभारत के महारण के प्रारम्भ में हुआ था। तत्कालीन परिस्थितियों में इसे धर्मयुद्ध की संज्ञा दी गयी थी जिसमें धर्मपक्ष के वाहक पाण्डव थे और उनका मार्गदर्शन भगवान श्रीकृष्ण कर रहे थे। अधर्म पक्ष का नेतृत्व दुर्योधन कर रहा था। वह युद्ध धर्म की रक्षा के लिए शस्त्रयोजित था। कुछ वैसी ही परिस्थितियाँ वर्तमान भारत के समक्ष भी उभर रही हैं। उस युद्ध में विजय की आकांक्षा लिए हुए कौरवों ने किसी भी मूल्य पर विजेता बनने के लिए युद्ध के नियमों को अस्वीकार कर नि:शस्त्र अभिमन्यु को चारों ओर से घेरकर अनेक महारथियों के साथ एकसाथ आक्रमण किया और उसकी परिणति अभिमन्यु की मृत्यु के रूप में हुई। कौरवों ने सम्भवत: तब यही सोचा होगा कि उनकी इस विजय के साथ ही युद्ध समाप्त हो जायेगा और वे विजेता बनकर समग्र पृथ्वी का उपभोग करेंगे। किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि पाथेय कुछ भी हो किन्तु अन्तिम विजेता सत्य और धर्म ही होते हैं। “सूच्यग्रं नैव दास्यामि” की गर्वोक्ति करने वाला दुर्योधन बन्धु-बान्धवों, परिजनों और सखाओं सहित इस पृथ्वी से ही वंचित हो गया। ये बातें कहने का मेरा भाव मात्र यही है कि इतिहास स्वयं को दुहराता है। आज भाजपा विशुद्ध मन से धर्म स्थापना में तत्पर है किन्तु कौरव रूपी विपक्ष अब भी एकसाथ आक्रमण करके अभिमन्यु की मृत्यु का स्वप्न देख रहा है। देश के समस्त नागरिक जब वर्तमान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के प्रति अपनी आस्था और विश्वास व्यक्त कर रहे हैं, उनकी कुशल वैश्विक कूटनीति और सदाचारपूर्ण शासन की सराहना कर रहे हैं तो विपक्षी इससे तिलमिला उठे हैं। लोकप्रियता स्वयं ईर्ष्या का कारण होती है किन्तु उसकी भी एक सीमा होती है। ईर्ष्या को प्रतिस्पर्द्धा में परिणत करके उससे सकारात्मक परिणाम की उपलब्धि होती है किन्तु ईर्ष्या का चरम छलपूर्वक सोने का कटोरा खरीदने में असफल रहने वाले उस व्यापारी की मृत्यु तक पहुँचता है जिसे बोधिसत्व ने सस्ते मूल्य पर खरीदकर उसका उचित मूल्य गरीब बुढ़िया और उसकी बेटी को दिया था। विपक्ष की ईर्ष्या का सामान्य स्वरूप जनता के कुछ वर्ग को विभाजित करके भाँति-भाँति प्रकार के आन्दोलनों, हत्याओं, दंगों आदि का समर्थन करने के रूप में हमारे सम्मुख स्पष्ट है। इन घटनाओं को मैं सामान्य इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह विपक्ष का स्वभाव है। किन्तु इसका वीभत्स रूप हमारे सामने तब आता है जब देश के प्रधानमन्त्री की मृत्यु की कामना करते हुए विपक्ष के नेता कभी पाकिस्तान जाकर इस कृत्य में उसकी सहायता माँगते हैं तो कभी नक्सलवादियों के माध्यम से षड्यन्त्र रचने और इसका भेद खुल जाने पर अज्ञानियों की भाँति तर्क देते हैं। तात्पर्य यह कि अभिमन्यु द्वापर युग में भी मारा गया था और अभिमन्यु को कलियुग में भी मारने का प्रयास किया जायेगा। अभिमन्यु की परिणति ही यही है। किन्तु इससे क्या विपक्ष अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो पायेगा? कदापि नहीं, क्योंकि मात्र अभिमन्यु के मरने पर ही महाभारत समाप्त नहीं होता है। महाभारत सत्य और धर्म की विजय के साथ समाप्त होता है। अफवाहें फैलाकर किसानों को भड़काना, दलितों के बीच दुष्प्रचार करके उन्हें हिंसक आन्दोलन के लिए प्रेरित करना, देश के लिए जीवन का बलिदान देने वाले वीर-पुत्रों पर प्रश्न-चिह्न लगाना, नक्सलियों और आतंकवादियों के समर्थन में कुतर्क प्रस्तुत करना, परोक्ष माध्यमों से देश में अशान्ति फैलाने के अवसर ढूँढना, भ्रष्टाचारियों पर की गयी कार्यवाहियों को अनुचित ठहराना, न्याय-व्यवस्था को प्रभावित कर व्यापक नरसंहार करने वालों को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास करना आदि अनेक शस्त्रों के माध्यम से प्रहार करने में तत्पर विपक्ष इतिहास को अनदेखा कर रहा है किन्तु स्मरण रहे कि यदि घटनाएँ उसी प्रकार घटित होंगी तो परिणाम भी वही निकलेगा जो अतीत में निकल चुका है। अब भी समय है कि विपक्ष देश की सेवा में सकारात्मक भूमिका निभाए। मात्र अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए देश को गिरवी रखने का प्रयास न करे अन्यथा देश की जनता जब समरक्षेत्र में कूद पड़ेगी तो समस्त कौरवों का विनाश पुन: होना निश्चित है।