अमेरिका-यूरोप में बढ़ी शाकाहार की मांग


2002 में सार्स, 2009 में स्वाइन फ्लू, 2013 में इबोला h और अब कोरोना। दो दशक से भी कम समय में फैली इन महामारियों में एक बात आम है कि ये सभी जानवरों से इंसानों में आई हैं। यही वजह है, इन दिनों दुनियाभर में मांसाहार को लेकर तीखी बहस छिड़ी हुई है। खासतौर पर अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में बूचड़खानों से कोरोना फैलने की घटना ने तो पश्चिमी समाज को मांस उपभोग पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। इन देशों में कोरोना के भयावह नतीजे देखने के बाद आहार विशेषज्ञों ने समय रहते शाकाहार का रास्ता पकड़ने की सलाह दी है। उनका कहना है, भविष्य में कोरोना जैसी महामारियों से बचाव का रास्ता कुदरती संतुलन बनाकर ही निकलेगा। अमेरिका के रोग नियंत्रण और बचाव केंद्र (सीडीसी) के अनुसार हर चार में से तीन महामारियां जानवरों से इंसान में आई हैं। इसे आपसी रिश्ता टूटने का नतीजा माना गया है।

अमेरिका में मांस की कमी दिखने पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बूचड़खाने खोलने का आदेश दिया तो मांस के शौकीन अमेरिकियों ने खुद पूछा, क्या उनका स्वाद मांस तैयार करने वाले गरीब मजदूरों की जान से ज्यादा कीमती है? जिन 10 काउंटियों को हॉटस्पॉट माना, उनमें से छह काउंटियां बूचड़खानों का बड़ा अड्डा हैं। पोर्क प्लांटों में फैला कोरोना-अमेरिका का पांच फीसदी पोर्क उत्पादित करने वाला सिओक्स फॉल्स देश का सबसे बड़ा हॉटस्पॉट है। आयोवा के टायसन प्लांट में 60 फीसदी कर्मी यानी 730 कोरोना संक्रमित मिले। आयोवा में ही टायसन के दूसरे प्लांट में 2,800 में से 1,031 कर्मचारियों में संक्रमण फैल गया।मांस प्लांट बंद होने से काफी जानवर नहीं काटे गए। उनकी बढ़ती तादाद देखकर कई को गर्भपात का इंजेक्शन लगाया गया, तो कई की हत्या कर दी गई। हालात इतने खराब हो गए कि आयोवा के कई सूअरपालकों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं देनी पड़ीं।

पशु हत्या को ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ाने वाला प्रमुख कारण माना गया है। पत्रिका द इकोनॉमिस्ट के अनुसार 25-34 साल के एक चैथाई अमेरिकियों ने माना है कि वे शाकाहारी हो गए हैं। शाकाहारी भोजन की मांग तेजी से आसमान छू रही है। आज कम से कम लोगों पर मांसाहार के बारे में सोचने का दबाव बना है।प्रोजेक्ट ड्राडाउन का कहना है कि शाकाहार के जरिए हर व्यक्ति ग्लोबल वॉर्मिंग को पलट सकता है। खुद अमेरिकी रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स, दोनों अमेरिका के पेरिस जलवायु संधि में बने रहने की पैरवी भी की थी।2015 के अध्ययन के अनुसार, शाकाहारी डाइट पर एक व्यक्ति का खर्च करीब 60 हजार रुपये बैठता है, जो मांसाहार से कहीं कम है। इससे बूचड़खानों की तरह गरीब श्रमिकों की जान भी दांव पर नहीं लगेगी। लेकिन, क्या हम हमारी भोजन प्लेट से मांस हटा सकते हैं? इसका जवाब हमारी जरूरत में मिल जाएगा और इस वक्त जरूरत बेहतर, सुरक्षित और संतुलित खानपान की हंै।पहला सवाल, क्या हमें प्रोटीन के लिए जानवर खाने की जरूरत है, तो इसका जवाब हैदृनहीं। इसके बिना भी ज्यादा स्वस्थ शरीर और दीर्घायु पा सकते हैं। अधिकतर अमेरिकी शरीर के लिए तय मात्रा के मुकाबले 70 फीसदी तक ज्यादा प्रोटीन लेते हैं। पर, अधिक प्रोटीन देने वाला मांस खाने से हृदय रोग, मधुमेह और किडनी फेल होने के ज्यादा आसार होते हैं।दूसरा सवाल, क्या शाकाहार फैक्ट्री फार्मिंग सिस्टम को धराशायी कर किसानों की नौकरियां छीन लेगा। इसका जवाब भी हैदृनहीं। असल में ऐसे किसान संगठन उनका इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। अमेरिका में किसानों की तादाद बहुत कम हैं, जबकि देश की आबादी करीब 11 गुना बढ़ गई है। विशेषज्ञों का कहना है, ज्यादा लोगों के शाकाहारी बनने से जितने रोजगार खत्म होंगे, उससे कहीं ज्यादा रोजगार किसानों को मिलेंगे।

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