पिछले दिनों योगी सरकार ने मैनेमेंट के जरिये चल रहे कुछ डीम्ड यूनिवर्सिटी को उत्तर प्रदेश में बंद किया । जिसके कारण उन लोगों की डिग्री सकते में आ गयी जो कि उसमें अध्ययन कर रहें थे। उसके बाद जो पढ रहे थे उनके भविष्य पर ताला लग गया और वह अब पुनः अध्ययन केलिये प्रयासरत है। सवाल यह है कि अगर यहां शिक्षा नही कारोबार हो रहा है तो इसके लिये जिम्मेदार कौन है । यह व्यवस्था जिसने कागजों पर यूनिर्सिटी चलाने की मान्यता दी या वह लोग जो डिग्री के नाम पर लोगों का लूटा , जिसमें ज्यादातर उघोगपति व राजनेता है।
अब खबर यह है कि उत्तर प्रदेश की कि वहाँ के 32 इंजनियरिंग व मैनेजमेंट कॉलेज बंद हो रहे हैं, मगर कुछ ऐसी ही खबर देश के प्रत्येक राज्य में छप रही हैं।गौरतलब हो कि इस बर्ष एआईसीटीई से सम्बद्ध 10,300 कॉलेजो में से दस प्रतिशत यानि एक हजार से ज्यादा बंद हो रहे हैं।इसका कारण यह है कि निजी संस्थानों के बार्षिक सर्वेक्षण 2017 में यह खुलासा किया भी था कि अगले चार वर्षों में आधे से ज्यादा तकनीकी संस्थान बंद होने वाले हैं।क्योंकि उनकी शिक्षा गुणवत्ता के आधार पर सही मानको में खरी नही उतरी ।जो बच्चे वहां शिक्षा ग्रहण किये वह किसी न किसी कारण डिग्री घारक तो हो गये लेकिन उनको सही बनाने व रोजगार दिलाने का काम सरकार नही कर सकी।
सही मायने में देखा जाय तो सच्चाई यह है कि देश के लगभग 4000 तकनीकी शिक्षा संस्थान बंद होने के कगार पर है किंतु उनमें पढ़ रहे प्रथम , द्युतीय व तृतीय वर्ष के विद्यार्थियों का कोर्स बाकी है, इसलिए एकदम से बंद नहीं कर सकते। फिर सवाल सरकार की इज्जत का है। ऐसा इन संस्थानों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व रोजगार न दिला पाने के कारण भी हो रहा है। (देश के निजी विश्विद्यालयों ने भी परिदृश्य बदला है और इनमें से 5 लाख सीटो के भागीदार वे भी हैं और 2 से 3 लाख रोजगार भी। ) वहाँ भी दिए जाने वाले रोजगार के मुकाबले दुगनी सीटें उपलब्ध हैं। किन्तु अब विश्वास नही है कि इतना खर्च करने के बाद रोजगार मिलेगा इसलिये प्रवेश नही है , देश के बालकों को दूसरे राज्यों में भेजा रहा है जहां शिक्षा का गुणवत्ता गृहराज्य के मुकाबले कुछ नही है। इसलिये कई राज्यों में दो तिहाई सीटें खाली है।
इस मामले में एआइसीटीई खुद मानती है कि उससे संबद्ध संस्थानों में 37 लाख सीटें है किंतू प्रवेश केवल 20 लाख ही हो पाते हैं। ये भी माल कमाने के लालच में बच्चो व माता पिता को बहला फुसला कर, सब्जबाग दिखलाकर। इसी कारण अयोग्य विद्यार्थी प्रवेश तो ले लेता है किंतू कुछ समय बात ही पढ़ाई छोड़ देता है। ऐसे विद्यार्थियों की संख्या 7 लाख प्रतिबर्ष है यानि कुल प्रवेश का 35 प्रतिशत। अंदाजा लगाइए कितने बड़े सुनियोजित धोखे व लूट होती हैं नयी पीढ़ी के साथ। जैसे तैसे जो 13 लाख लोग डिग्री ले भी पाते हैं उनमें से आधे यानि 6 से 7 लाख नोकरी लायक नहीं होते और बेरोजगार रह जाते हैं। जिन 6-7 लाख विद्यार्थियों को नोकरी मिलती भी है उनमें से 1 से 2 लाख ही जॉब सेटिस्फेक्शन महसूस कर पाते है और बाकि कुढ़ते जलते संघर्ष करते रहते हैं।
यह सरकारों के नीतिकारों पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है कि जब देश को 6 से 7 लाख ही इंजीनियरिंग व मैनेजमेंट पास लोग चाहिए तो 37 लाख सीटों का ढांचा जो लाखों करोड़ रुपये खर्चकर क्यों तैयार किया गया? फिर इतने संसाधनों व समय, धन व युवाओं की ऊर्जा क्यो बर्बाद की जा रही है? किसकी जबाबदेही है इस सुनियोजित सिंडिकेट की लूट व षड्यंत्र की? मजेदार बात यह है कि देश के हर नेता, नोकरशाह, उद्योगपति व व्यापारी की इन संस्थानों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पत्ती यानी हिस्सेदारी है। कितनी हास्यास्पद बात है कि हमारे देश मे एक करोड़ लोग इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं और देश का दो तिहाई हिस्सा आज भी अत्यधिक पिछड़ा है।
बिना शिक्षा के भारतीयकरण के शोध, इन्नोवेशन, इंट्रप्रेनेरशिप, औधोगिकरण के अभाव के आयात आधारित अर्थव्यवस्था का यही हाल होना ही है। देश के कई प्रदेशों में जहां सीटें नही भर पा रही है वहां पर गेस्ट टीचर इसका मूुख्य कारण है । जिन्हें कुछ नही आता वह योग्य विधार्थी कहां से मिलेगें। जिनकी योग्यता पर उपस्थित मिली उनको अयोग्य का भक्षण करने के लिये परिवार वाले कैसे छोड दें , प्रकृति के नियम को तोडकर घोड़े को गधे के साथ बांधा जा रहा है।