1930 तक राष्ट्रों की मुद्राएं सोने की इकाई से जुड़ी थीं, इसलिए उनका आधार था। पर 1930 की मंदी के बाद सभी देशों ने मुद्रा को सोने से अलग कर दिया, और अब उसके आधार नए आर्थिक संकल्पनाएँ और आर्थिक मापदंड हो गए। इसलिए मुद्रा का मूल्य घटना, बढ़ना बाजार में होने वाले लेनदेन पर आधारित हो गया और वह राष्ट्रीय अस्मिता का मापदंड नहीं रहा। इस नई व्यवस्था को निम्न उदाहरण से समझते हैं। 1960 आते आते फ्रांस की मुद्रा का अवमूल्यन होते होते वह 100 फ्रैंक में 1 डॉलर के आसपास पहुंच गयी। फ्रांस ने 1960 में घोषित कर दिया कि आज से उसका नया 1 फ्रैंक पुराने 100 फ्रैंक के बराबर होगा। अगले दिन से फिर 1फ्रैंक का मूल्य 1 डॉलर जितना हो गया। देश की अर्थव्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ा, पर कुछ फ्रांसीसियों का आत्मगौरव भी बढ़ गया, क्योंकि अब 1 फ्रैंक में 1 डॉलर मिलने लग गया था। जो फ्रांस कर सकता था, उसे आगे टर्की ने भी किया और कभी भारत भी कर सकता है ! पर भारत मे कुछ लोग, जिसमें अधिकांश नेता जुड़े हैं, वे इसी रुपये को मजबूत करना चाहते हैं, चाहे वैसे करते हुए देश दिवालिया हो जाये !
विश्व बाजार में वस्तुओं का मूल्य केवल उत्पादन लागत पर नहीं तय होते हैं, बल्कि जिस देश में वे बने, उस देश की मुद्रा के बाजार भाव पर भी निर्भर होते हैं। अर्थशास्त्र में एक शब्द प्रचलित है, करेंसी वॉर ! अर्थात मुद्रा युद्ध ! जब कोई देश या अनेक देश मंदी जैसे आर्थिक संकट के समय अपने निर्यात को बढ़ाने के लिए और आयात को घटाने के लिए कृत्रिम रूप से अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करते हैं, तो उसे मुद्रा युद्ध कहते हैं। 1930 की महामंदी के समय अनेक देशों ने इस रणनीति को एक साथ अपनाया, जिस कारण से विश्व व्यापार बुरी तरह से प्रभावित हुआ। इसलिए अमेरिका में हुए ब्रेटनवुड समझौते में उस पर रोक लगाई गई। पर अनेक देश उस रणनीति को बड़ी होशियारी से और दीर्घकालिक तौर में अपनाते हैं, जिससे वे अन्य देशों की आंखों में अनेक वर्षों तक धूल झोंकने में सफल हो जाते हैं।अमेरिका आजकल चीन पर मुद्रा घपला का आरोप लगा रहा है। वह भी करेंसी वॉर का छुपा रूप है। चीन ने 1980 से लेकर 2005 तक अपनी मुद्रा का लगातार अवमूल्यन होने दिया। 1980 में 1.53 युवान में 1 डॉलर से लेकर 2005 में 8 युवान में 1 डॉलर तक उसने धीरे धीरे अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया और उस कमजोर मुद्रा के सहारे विश्व बाजार पर कब्जा कर लिया। चीनी अर्थव्यवस्था मजबूत हो जाने के कारण 2005 के बाद युवान कुछ महंगा होते चला गया और 2015 तक 6 युवान में 1 डॉलर तक पहुंचा। लेकिन जैसे ही 2017 में अमेरिका ने चीन के साथ व्यापार युद्ध घोषित किया, मजबूत अर्थव्यवस्था होने के बावजूद और अमेरिका के साथ 500 बिलियन डॉलर का व्यापार मुनाफा होते हुए भी उसने अपने युवान का अवमूल्यन प्रारम्भ कर दिया है, अब 6 युवान में 1 डॉलर की जगह पर 7 युवान में 1 डॉलर हो गया है, अर्थात उसने अपनी मुद्रा के मूल्य को लगभग 15% गिरा दिया है।
2008 में अमेरिका में वित्तीय संकट आया और उससे मंदी प्रारम्भ हुई। इस बार अमेरिका ने बदनाम हो चुके मुद्रा अवमूल्यन वाले करेंसी वॉर से मंदी का सामना नहीं किया। उसने मंदी से लड़ने के लिए एक नया औजार ईजाद किया, क्वांटिटेटिव ईसिंग ! अमेरिका के फेडरल रिजर्व बैंक ने अतिरिक्त डॉलर का बड़े पैमाने पर मुद्रण करके उसे देश की अर्थव्यवस्था में उतार दिया और साथ ही बैंक ब्याज दरों को लगभग शून्य कर दिया। अतिरिक्त डॉलर को छपाकर उस देश में लोगों के हाथ में अधिक पैसा दे दिया गया, उससे वस्तुओं की मांग बढ़ गयी और मंदी पर असर पड़ा। पर इसका एक परिणाम और हुआ, जिसका सबसे पहले ब्राजील के अर्थमंत्री ने 2010 में खुलासा किया। उन्होंने घोषित किया कि विश्व में एक नए प्रकार का करेंसी वॉर चल रहा है। कैसे ? अमेरिका और यूरोप आदि विकसित देशों ने बहुत नई मुद्रा छापी और ब्याज दर अत्यल्प कर दी। अतः इन देशों के व्यापारियों ने वह अतिरिक्त धन अन्य विकासशील देशो में निवेश करना शुरू कर दिया। इससे उन देशों की मुद्रा का मूल्य बढ़ गया। उन विकासशील देशों की मुद्रा के मजबूत होने से उन देशों में आयात सस्ता हो गया और उन देशों से निर्यात महंगा ! अर्थात अमेरिका आदि ने अपने आर्थिक संकट को भारत जैसे देशों के आर्थिक संकट में बदल दिया। इसे समझने में अनेक देश गच्चा खा गए और एक नए प्रकार के करेंसी वॉर के शिकार हो गए।
सही मायने में देखा जाय तो भारत के रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने अमेरिका में एक खुले भाषण में इस खतरे के प्रति चेताया था। 2015 में उन्होंने कहा था, “विकसित देश मौद्रिक शिथिलता के द्वारा उभरते देशों में अधिक निवेश करके उनकी मुद्रा को मजबूत करने में लगे हैं।” जो बात वे खुले मंच से कह रहे थे, उसे वह भारत सरकार को भी अवश्य कह रहे होंगे। पर यहां तो ‘रुपया मजबूत, तो देश मजबूत’ वाले लोग सत्ताधारी थे। अतिरिक्त विदेशी निवेश से उनका रुपया मजबूत होने से उन्हें गौरव महसूस हो रहा था, अतः उन्हें करेंसी वॉर के शिकार होने की अनुभूति कहाँ से हो पाती !आज भारत भी यही प्रयास कर रहा है लेकिन वह बडा देश है और इतने बडे देश की अर्थव्यस्था में बदलाव लाना संभव नही है। यह देश सीखने के लिये नही है चलाने के लिये है और इसी सिद्धान्त पर हमें अमल करने पर सोचना चाहिए |
सराहनीय आर्थिक विश्लेषण