गत 15 अगस्त को हम आजादी की 70वीं सालगिरह मना चुके हैं और साथ ही ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के भी 75 वर्ष पूरे हो चुके। इन 70 वर्षों में स्वतन्त्रता के पश्चात भी देश को भाँति-भाँति के संघर्षों से होकर गुजरना पड़ा। स्वतन्त्रता के पश्चात देश में कांग्रेस के प्रभुत्व वाली सरकार ने देश के नेतृत्व का उत्तरदायित्व लिया किन्तु इतने सुदीर्घ अन्तराल के बाद भी देश वस्तुतः अनेक प्रकार की परतन्त्रताओं से आबद्ध रहा। स्वतन्त्रता के पश्चात देश की सीमाओं के प्रति जो लापरवाही हमारे नेताओं ने की उसका दंश सम्पूर्ण देशवासियों को आज तक पीड़ित किए हुए है। निस्सन्देह हमने प्रगति की किन्तु हम अपनी परम्पराओं, मूल्यों, संस्कृतियों में पिछड़ते चले गये। देश का नेतृत्व देशवासियों में जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय वैमनस्यता की भावनाओं को निर्मूल कर पाने में विफल रहा। ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगाते-लगाते हम गरीबों का शोषण करते रहे। आज भी क्या अधिकांश जनता को दोनों वक्त का भरपेट भोजन मिल पा रहा है? क्या हम प्रत्येक बालक के लिए शिक्षा की व्यवस्था कर पाये हैं? क्या हम अपने गाँवों को प्राथमिक मूलभूत सुविधाएँ प्रदान कर पाने में सफल हो पाये हैं? क्या हम देशवासियों की चिकित्सा का समुचित प्रबन्ध कर पाये हैं? क्या अपने देशवासियों को विदेशी और स्वदेशी आक्रान्ताओं के भय से मुक्त कर पाये हैं? क्या हम अपने देश में व्याप्त गन्दगी से छुटकारा पा सके हैं? ऐसे अनेक अनुत्तरित प्रश्न हमारे सम्मुख आज भी खड़े हैं जिनके विषय में हमें गम्भीरतापूर्वक विचार करना ही होगा।
वैश्विक परिदृश्य में अपनी स्थिति के प्रति उदासीनता का प्रतिफल आज कांग्रेस को भुगतना पड़ रहा है। यदि कांग्रेस समय रहते देश के प्रति अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन कर पाती तो आज उसे अपने अस्तित्व को बचाये रखने की ऐसी जद्दोजेहद न करनी पड़ती। किन्तु सामाजिक तुष्टिकरण, भेदभाव, अल्पसंख्यकों को भय के वातावरण में धकेलते हुए बहुसंख्यकों का अपमान और अनादर, जातीय विद्वेष आदि के आधार पर सत्ता के घिनौने खेल में संलिप्तता ने सियासत को एक अलग लीक पर चलने के अग्रसर किया और इन्हीं मानदण्डों के आधार पर अनेक क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ जिन्होंने भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार पर अपने निजी हितों को सर्वोपरि रखते हुए राजनीति को ऐसी विभीषिका की ओर धकेल दिया जिसका परिणाम आज हमारे सम्मुख है। विद्वेष की यह भावना इतनी प्रबल हो चुकी है कि देश के उपराष्ट्रपति को जिन्होंने पदासीन रहते हुए कभी कोई अविवेकपूर्ण वक्तव्य नहीं दिया और निष्पक्ष भाव से अपने दायित्व का निर्वहन किया, अपने अन्तःकरण के भावों को जाते-जाते व्यक्त कर गये। तात्पर्य यह है कि देश और देशवासियों के हितों के विरुद्ध कांग्रेस की अविवेकशील नीतियों ने उच्च पदस्थ लोगों को भी वही स्वर प्रदान किया जिनका आलाप हमारे देश के शत्रु करते रहे हैं।
किन्तु गत तीन वर्षों से सत्ता परिवर्तन के साथ ही देश की मनोदशा में भी परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ। देश में राष्ट्रीयता की उसी भावना का संचार होना प्रारम्भ हुआ जो अंग्रेजी शासनकाल में भारतीयों के हृदय में विद्यमान था। वर्तमान सरकार ने देश को विकसित देशों की पंक्ति में स्थापित करने का जो अटल प्रयास किया उसका परिणाम आज हमारे सम्मुख है। तेजी बढ़ती अर्थव्यवस्था और देशहित में उठाये गये अद्भुत साहसिक कदमों ने देशवासियों का मस्तक गर्व से उन्नत किया है। सामाजिक समरसता और राष्ट्रीयता का भाव भरने के उपरान्त ही जापान जैसा छोटा देश आज विकसित है और उसी राह पर हमारी वर्तमान सरकार भी अग्रसर है। अपने तीन वर्षों के अल्पकाल में ही जिस उत्साह के साथ निरन्तर आगे बढ़ रहे हैं उससे पड़ोसी देशों में ईर्ष्या का भाव जाग्रत होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि हमारे कुछ पड़ोसी देश निरन्तर भारत में अस्थिरता का वातावरण निर्मित करने में जुटे हैं जिनका सहयोग कुछ जयचन्द भी कर रहे हैं। जो कुछ भी हो, देश के प्रति हमारा कठोर संकल्प इन समस्त बाधाओं को तिरोहित करता हुआ ऊर्ध्वगामी बना रहेगा। महाकवि धूमिल ने जिस परिवेश में लिखा था, “आजादी तीन थके हुए रंगों का नाम है जिसे केवल एक पहिया ढोता है” वह परिवेश बदलने में हमारी सरकार सक्षम है। यदि धूमिल आज जीवित होते तो वे लिखते कि “आजादी तीन स्वतःस्फूर्त रंगों का नाम है जिसे एक प्रगतिशील पहिया ढोता है।”