इसी साल केरल में हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति मोहम्मद मुस्ताक के नेतृत्व वाली पीठ ने एक मामले में कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 376 लैंगिक रुप से समान नहीं है ।कोर्ट में चिंता व्यक्त की कि अगर कोई महिला शादी के झूठे वादे के तहत किसी पुरुष को झांसा देती है तो उस पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता लेकिन इसी बात के लिए पुरुष पर मुकदमा किया जा सकता है ।कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसे कानून को लैंगिक समानता की जरूरत है कोर्ट के इस विचार के बाद इसपर विरोधी स्वर मुखर हो गए।
यह सत्य को नकारने की जिद नहीं हुआ, सीता को भी दरकिनार कर दिया कि तटस्थ कानून के अभाव में भारत में पुरुषों के विरुद्ध छूट के दावों और आरोपों का अंबार लगा दिया ।अगस्त 2021 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दुष्कर्म के मामलों में खतरनाक वृद्धि पर अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि ऐसे मामले शिकायतकर्ता की मांगों के आगे झुकने के लिए दर्ज किए जा रहे हैं यह परिदृश्य को तब तक नहीं बदल पाएगी जब तक फीलिंग निरपेक्ष कानून बनाने पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाएगा।
महिला विरोधी अपराधों के मामले में झूठी शिकायतों का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है ।बीते दिनों चर्चा में आया गाजियाबाद का कथित सामूहिक दुष्कर्म कांड फर्जी निकला। इसी तरह बीते दिनों राजस्थान महिला आयोग ने पुरुषों के विरुद्ध झूठी शिकायतें करने वाली 51 महिलाओं को चिन्हित किया एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था में जहां स्त्री के आरोप लगाने भर से बिना किसी प्रमाण के पुरुष को अपराधी स्वीकार कर लिया जाता है वहां ऐसी कार्रवाई अचंभित करने वाली परंतु सुखद है लैंगिक समानता के स्थापित करने की जद्दोजहद विश्व में दिखाई दे रही है परंतु गंभीर चिंतन का विषय है वैधानिक प्रावधानों के बावजूद लक्ष्य अधूरा है। नारीवाद आंदोलन के पैरोकार संपूर्ण दोष पुरुषों पर डाल देते हैं पर क्या यह उचित है।
बीते दशकों में अंध नारीवाद की लहर लैंगिक समानता के वास्तविक अर्थ को छुपाने में कामयाब रही है। लैंगिक समानता का वास्तविक अर्थ बिना किसी लिंगभेद के सभी की समानता की बात करना है परंतु दुर्भाग्य है कि इसे सिर्फ महिलाओं की समानता के अधिकारों तक ही सीमित कर दिया गया है।इस संदर्भ में तर्क दिया जाता है कि महिलाएं ही दोयम दर्जे पर खड़ी हैं तो समानता का संघर्ष उन्हीं के लिए ही होगा इसमें संदेह नहीं कि स्त्री को हाशियों पर धकेला गया है परंतु इसका तात्पर्य भी तो नहीं कि इसका दोष संसार के समस्त पुरुषों पर मड दिया जाए।
नारीवाद समर्थकों ने पुरुषों को निरंतर खलनायक रूप में चिन्हित किया है बिना किसी तत्व पर विचार किए कि देश चाहे कोई भी हो पुरुष और स्त्री के सम्मान जिसके बगैर वह समाज मे स्थिर नहीं रह सकता , उसे खत्म किया जा रहा है।दुखद यह है कि लैंगिक समानता प्राप्त करने के मार्ग में स्त्री को पीड़िता और पुरुष को शोषक सिद्ध करने की आकांक्षा में समाज में एक घर से उत्पन्न कर दिया है और दोनों ही एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हो गए, पुरुषों के विरुद्ध एक ऐसी घेराबंदी की गई है कि उनकी आवाज किसी को सुनाई नहीं दे रही है अगर यह सत्य नहीं तो क्यों विधि निर्माण करते समय अनुच्छेद 14 जो किसी भी व्यक्ति के समक्ष समानता या कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करने की बात करता की अवहेलना की गई क्योंकि इस पर विचार नहीं किया गया कि किसी एक अधिकारी का संरक्षण दूसरे के अधिकारों का बचपना करता हो।परिणाम स्वरूप पुरुषों का एक वर्ग महिलाओं के साथ काम करने से कतरा ने लगा है।
एक सर्वेक्षण से यह तथ्य उजागर हुआ कि 60% पुरुष प्रबंधक सामान्य कार्यस्थल गतिविधियों में महिला कर्मचारियों से दूरी बनाए रखना चाहते हैं क्षेत्र में पुरुषों ने कहा कि वह झूठे आरोपों के चलते अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के रूप में महिलाओं को नहीं रखना चाहते ।कट्टरपंथी नारीवाद समर्थकों को यह समझना जरूरी है कि स्त्री-पुरुष के बीच विभेद की जो विध्वंस रेखा उन्होंने खींची है किसी के लिए भी हितकारी नहीं ,समानता का संघर्ष बुरे और अच्छे के भेद पर टिका होना चाहिए, ना कि स्त्री और पुरुष के अंतर पर ,स्त्री और पुरुष को जब तक एक दूसरे के विरुद्ध खड़े किए जाने की प्रवृत्ति का त्याग नहीं होगा तब तक लैंगिक समानता अपना आस्तिब तलाशती रहेगी।