24 मार्च को भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को फाँसी देने वाली अंग्रेजी सरकार के हौंसले इतने पस्त हो गये थे कि उन्हें इन महानायकों की फाँसी की निर्धारित तिथि को बदलने के लिए बाध्य होना पड़ा और एक दिन पहले ही 23 मार्च की रात्रि को अत्यन्त गोपनीय ढंग से फाँसी देनी पड़ी। यही नहीं इन शहीदों के शवों को भी रात्रि में सतलुज नदी के तट पर संस्कारित करना पड़ा। जिन परिस्थितियों से पूरा देश गुजर रहा था उसमें किसी शहीद के पक्ष में खड़ा होना भी किसी भयंकर आपदा को आमन्त्रित करने से कम नहीं था। इन विपरीत परिस्थितियों में भी सम्पूर्ण देश अपने इस महानायक की अन्तिम यात्रा में शारीरिक और मानसिक रूप से सम्मिलित होने के लिए विकल था। यही तत्कालीन अंग्रेजी सरकार के भय का कारण था। इन शहीदों के देदीप्यमान मुख की आभा और अपने बलिदान के गर्व को देखकर अंग्रेजी हुकूमत को अपनी नींव खिसकती दिखाई देने लगी।
आज हम जिस स्वतन्त्र भारत में मुक्त साँस ले पा रहे हैं यह उन्हीं शहीदों की गरिमामयी विरासत के कारण ही सम्भव हो पाया है। भारत में प्रजातन्त्र की स्थापना का उनका स्वप्न पूरा हुआ जिसके लिए उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। आज के तथाकथित और स्वयंभू क्रान्तिकारियों की तुलना करना न केवल उनका अपमान करना है बल्कि उनके बलिदानों की शौर्यगाथा पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करना है। सबसे दुखद स्थिति तो तब उत्पन्न होती है जब देश के गणमान्य प्रतिनिधि भी, जो मात्र उन शहीदों के बलिदान और त्याग के कारण ही स्वतन्त्र संसद में राजसुख का उपभोग कर रहे हैं, उन शहीदों का अपमान करने लगते हैं। स्पष्टतः ऐसी स्थितियाँ 18-20 माह पूर्व तक नहीं थीं। परन्तु कुछ विवेकशील लोगों की अविवेकपूर्ण धारणाएँ और पूर्वाग्रह इतनी गहरी पैठ बना चुके हैं कि उन्हें राष्ट्रवादी और राष्ट्र को सर्वोपरि मानने वाले लोगों को अपमानित करने के लिए शहीदों की गरिमा का भी ध्यान नहीं रह गया। यह मानसिकता इतनी विकृत हो गयी है कि एक जनप्रतिनिधि तो राष्ट्रगान को मानसिक गुलामी का प्रतीक तक कह गया। क्या यही श्रद्धांजलि हम अपने शहीदों को देने वाले हैं। नहीं, ‘हम भारत के लोग’ ऐसा कहने और करने वालों को कभी अपना आदर्श नहीं मान सकते। यदि हममें भारतीयता है, हमें अपने राष्ट्र से प्रेम है, हमें राष्ट्रवासियों से प्रेम है तो हमें ऐसी कुत्सित धारणा रखने वालों को अन्तिम छोर पर रखना होगा ताकि उनका विष समाज और राष्ट्र को विकृत न कर पाये। अन्त में मैं राष्ट्रनायक भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के चरणों में अपना श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए भगत के इस अशआर को उद्धृत करना चाहता हूँ :
उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,
हमे यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।