जैन पंथ और गाय

 जैन पंथ का मूलाधार अहिंसा भाव होने के कारण जैन लोग गाय तो क्या किसी पशु पक्षी को कष्ट नहीं पहुंचाते जैन पंथ में गो-रक्षा का विशेष महत्व है। अनेक स्थानों पर पूर्वापर में भी उन्होंने विशाल गोशालाएं निर्मित की  और गो पालन को जीवन शैली बनाया महावीर के  काल में गायों की संख्या से किसी के धन का आकलन किया जाता था। एक वज्र गौकूल =10,000 गायें होती थीं। सर्वाधिक गायों के 10 स्वामियों को ‘राजगृह महाशतक’ एवं ‘काशियचुलनिपिता’ कहा जाता था। महावीर स्वामी ने अपने अनुयायियों को 60000 गायों के पालन का आदेश दिया था।

जैन मुनियों की पवित्र एवं कठिन आहार चर्या में भी तुरंत दुहा हुआ और मर्यादित समय में उष्ण किया हुआ गो दुग्ध श्रेयस्कर माना गया है। तीर्थंकर ऋषभदेव के काल से ही जैन समाज गौ रक्षा में सक्रिय है। उन्होंने ‘कृषि करो और ऋषि बनो’ का संदेश दिया।

 जैन आगमों में अनेक प्रसंगों में गो वत्स सम प्रीति का उदाहरण दिया गया है। जैन महापुराण में अच्छे श्रोता के लक्षण गाय के लक्षण के अनुरुप बताया गया है कि जिस प्रकार गाय तृण खाकर दूध देती है उसी प्रकार जो श्रोता थोड़ा उपदेश सुनकर बहुत लाभ लिया करते हैं वह गाय के समान होते हैं। अहिंसा के अनेक प्रतीक चिन्हों में यह दर्शाया गया है कि महावीर की अहिंसा के प्रभाव से शेर और गाय एक ही घाट में एक साथ पानी पीने लगे थे।

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