मालवीय जी कोई भी झूठा मुकद्मा नहीं लेते थे। असत्य पक्ष वाले का मुकद्मा लड़ना वे अस्वीकार कर देते थे , चाहेें वह कितनी फीस क्यों न दे रहा हो। वे दीन – हीनों तथा मित्र परिचितों के मामले बिना फीस लिए ही कर दिया करते थे। अपने व्यायवसायिक कर्तव्य के प्रति वे बहुत ही निष्ठावान थे। उन दिनों में इलाहाबाद के चोटी के चार वकीलों के नामों में उनकी गणना होती थी और उनमें एक मोतीलाल नेहरू भी थे। वे यदि चाहते तो अपनी वकालत से ही भारत के धनकुबेरों में से एक हो सकते थे। वकालत करना मालवीय जी का लक्ष्य नहीं था। उन्होंने वकालत इसलिए आरंभ की कि किसी प्रकार आजीविका चलती रहे।
मालवीय जी ने सन् 1909 में वकालत छोड़ दी और विश्वविद्यालय की स्थापना तथा देशसेवा के अन्य कार्यों अपना जीवन लगा दिया। कुछ वर्षों बाद अर्थात 5 फरवरी 1922 को देश में एक महान घटना हो गयी। कुछ लोगों ने सरकार के कारनामों से उत्तेजित होकर गोरखपुर जिले में चैरा – चैरा पुलिस थाने को आग लगा दी। उसमें 21 पुलिस सिपाही जीवित ही अग्नि में भस्म हो गये। फलतः उस काण्ड में उस क्षेत्र के 225 लोगांे को बन्दी बनाकर उनपर अभियोग चलाया गया। अभियुक्तों के वकील के ठीक से पैरवी न करने के कारण गोरखपुर सत्र न्यायालय ने 170 लोगों को फांसी का दण्ड दे दिया।
सत्र न्यायाधीश के निर्णय के विरूद्व प्रयाग उच्च न्यायालय में इसकी अपील की गई। कांग्रेस की ओर से मोतीलाल नेहरू को कहा गया कि वे इस महायोग में दण्डितों काी ओर से बहस करें। पण्डित नेहरू ने कागजात देखे और फिर कहा ’ इस अपील में उच्च न्यायालय में यदि कोई भी लाभ इन दण्डितों को दिला सकता है तो वह एकमात्र व्यक्ति पं. मदनमोहन मालवीय ही हो सकते हैं अन्य कोई नहीं।
फलतः मालवीय जी से प्रार्थना की गयी और उन्होंने उस प्रार्थना को स्वीकार कर वर्षों बाद पुनः वकील का चोगा पहना और चौरी चैरा काण्ड में दण्डित अभियुक्तों की ओर से उच्च न्यायालय में बहस की। उस बहस का सुफल यह हुआ कि 150 लोगों की फांसी का दण्ड रद्द कर दिया गया।