देश के वैज्ञानिकों ने एक बहुत बडी उपलब्धि हासिल की है जिसे मीडिया वाले नही दिखाते है। न ही उसके बारे में कोई सरकार कहती है ।देखा जाय तो गर्भावस्था एक अद्वितीय जैविक अवस्था है, जिसमें शरीर एक साथ कई परिवर्तनों से गुजरता है, जिसमें वजन बढ़ना, साथ ही साथ चयापचय, हार्मोनल और प्रतिरक्षात्मक परिवर्तन शामिल हैं। हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि आंत्र माइक्रोबायोम में परिवर्तन अस्वास्थ्यकर गर्भावस्था, गर्भावस्था में जटिलताओं या जन्म के खराब परिणामों से जुड़ा हो सकता है। इसलिए, गर्भावस्था के दौरान होने वाले सूक्ष्म-जैविकीय परिवर्तनों में गहराई से सोचना मूल्यवान होगा।पुणे के नेशनल सेंटर फॉर सेल साइंस (एनीसीएस) में डॉ. योगेश शौचे और उनके समूह द्वारा की गई खोजपूर्ण जाँच ने मानव जीवन में दो महत्वपूर्ण चरणों- गर्भावस्था और शैशवावस्था के दौरान आंत्र माइक्रोबायोटा में होने वाले परिवर्तनों की झलक प्रस्तुत की है। उन्होंने आणविक जीव विज्ञान के औजारों का उपयोग करके गर्भावस्था और प्रारंभिक अवस्था के विभिन्न चरणों में बीस स्वस्थ भारतीय माँ-शिशु से आंत्र माइक्रोबियल समुदायों का अध्ययन किया, जिन्हें 16एस-आरआरएनए जीन अनुक्रमण कहा जाता है।
उन्होंने गर्भावस्था के दौरान समग्र
आंत्र जीवाणु विविधता और संरचना में बड़े बदलाव नहीं पाये। हालांकि, जन्म से लेकर छह
महीने की उम्र के बीच के शिशुओं में पाए गए परिवर्तन काफी महत्वपूर्ण थे। सामान्य
तौर पर, जेनेरा, बिफीडोबैक्टीरियम से संबंधित
बैक्टीरिया में वृद्धि के साथ, जेनेरा, स्टैफिलोकोकस और
एंटरोकॉकस से संबंधित बैक्टीरिया में कमी देखी गई थी। माइक्रोबियल समुदाय छह महीने
की उम्र में अधिक स्थिर प्रतीत होता है, जिसमें एक सूक्ष्म माइक्रोबायोटा रचना
कुछ हद तक माताओं के समान होती है, जो परिपक्व और स्थिर वयस्क जैसे आंत्र
के वातावरण की ओर बदलाव का संकेत देती है।समूह ने मातृत्व कारकों जैसे कि सामाजिक
आर्थिक स्थिति और आहार के प्रकार, मातृ कण माइक्रोबियल संरचना पर और
जन्म के प्रकार के प्रभाव और शिशु आंत्र माइक्रोबियल विविधता पर प्रभाव का भी आकलन
किया। उनके निष्कर्ष बताते हैं कि एक सख्त शाकाहारी आहार का सेवन करने वाली माताओं
की तुलना में मिश्रित आहार (शाकाहारी और मांसाहारी) का सेवन करने वालों में
अत्यधिक महत्वपूर्ण रूप से अलग-अलग आंत्रों की सूक्ष्म जैव विविधता थी।
इन निष्कर्षों के आधार पर आगे की जाँच
के लिए एक व्यापक अध्ययन डिजाइन किया जा सकता है कि क्या और कैसे मातृ आहार
गर्भावस्था को प्रभावित कर सकता है और मातृ और साथ ही भारतीय जनसंख्या में शिशु
आंत्र जीवाणु विविधता को आकार दे सकता है। उनके द्वारा अध्ययन किए गए अन्य मातृ और
शिशु-संबंधी कारक प्रारंभिक अवस्था के दौरान गर्भावस्था या शिशुओं में माताओं की
आंत्र बैक्टीरिया विविधता को प्रभावित नहीं करते थे।भारतीय जनसंख्या के बारे में
अन्य समान अध्ययनों के विपरीत, जो मुख्य रूप से हस्तक्षेप-आधारित या
रोग-संबंधी निरीक्षण थे, डॉ. शौचे के समूह ने स्वस्थ मातृ-शिशु
में सूक्ष्म माइक्रोबियल प्रोफाइल का अध्ययन किया, जो गर्भावस्था और
शैशवावस्था में सामान्य स्वास्थ्य स्थितियों से संबंधित जीवों के प्रकारों को
प्रकट करता है। हालांकि प्रारंभिक तौर पर इन अध्ययनों के निष्कर्षों ने अन्य
मेजबान से जुड़े कारकों के साथ आंत्र जीवाणु विविधता के संबंधों में गहरी
अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए आगे की जांच को डिजाइन करने के लिए एक आधार
प्रदान किया है। लाल रक्त कणिकाओं पर शोध इसी तरह देष ने एक और उपलब्धि हासिल
की है जो लाल रक्त कोशिकाओं (आरबीसी) का रक्तदृआधान (ट्रांसफ्यूजन) कई तरह की
शारीरिक स्थितियों जैसे कि रक्त की भारी कमी, दुर्घटना संबंधी
आघात, हृदय शल्य चिकित्सा में सहायक स्वास्थ्य देखभाल, प्रत्यारोपण
(ट्रांसप्लांट) सर्जरी, गर्भावस्था संबंधी जटिलताओं, ट्यूमर संबंधी
कैंसर और रक्त संबंधी कैंसर के लिए एक जीवन-रक्षक उपचार है उसमें मद्द
मिलेगी।हालांकि, विशेषकर विकासशील देशों के ब्लड बैंकों में अक्सर रक्त के साथ-साथ
रक्त के घटकों जैसे कि लाल रक्त कोशिकाओं का भारी अभाव रहता है।जिससे अब निजात
पाया जा सकेगा।इस मामले में विश्वभर के शोधकर्ता रक्तोत्पादक स्टेम सेल (एचएससी)
से शरीर से बाहर आरबीसी का सृजन करने की संभावनाएं तलाश रहे हैं। इन एचएससी में
रक्त में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं को सृजित करने की विशिष्ट
क्षमता है। विभिन्न समूह एचएससी से प्रयोगशाला में आरबीसी का सृजन करने में सक्षम
साबित हुए हैं। हालांकि, इस प्रक्रिया में लगभग 21 दिनों का काफी लम्बा
समय लगता है। इतनी लम्बी अवधि में प्रयोगशाला में कोशिकाओं का सृजन करने में जितनी
धनराशि लगेगी उसे देखते हुए चिकित्सीय कार्यों के लिए बड़े पैमाने पर आरबीसी का
सृजन करना काफी महंगा साबित हो सकता है।भारत के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के पुणे
स्थित राष्ट्रीय कोशिका विज्ञान केंद्र (एनसीसीएस) के एक पूर्व वैज्ञानिक डॉ.
एल.एस.लिमये की अगुवाई में शोधकर्ताओं की एक टीम ने इस समस्या के समाधान का
तरीका ढूंढ निकाला है।इस टीम ने यह पाया है कि विकास के माध्यम में ‘एरिथ्रोपोइटिन
(ईपीओ)’ नामक हार्मोन के साथ ‘रूपांतरणकारी ग्रोथ फैक्टर β1 (टीजीएफ-β1)’ नामक एक छोटे
प्रोटीन अणु की बहुत कम सांद्रता को जोड़कर इस प्रक्रिया में काफी तेजी लाई जा सकती
है। यह टीम इस प्रक्रिया में लगने वाले कुल समय को तीन दिन घटाने में सफल रही
है।डॉ. लिमये ने बताया कि इस प्रक्रिया में बनने वाली कोशिकाओं की गुणवत्ता के
परीक्षण के लिए अनेक तरह की जांच कराई गई और इसके साथ ही उनकी अनेक विशिष्टताओं पर
भी गौर किया गया जिससे यह तथ्य उभर कर सामने आया कि इस प्रक्रिया के उपयोग से बनने
वाली लाल रक्त कोशिकाएं (आरबीसी) बिल्कुल सामान्य थीं।इन निष्कर्षों से इस दिशा
में आगे शोध करने की संभावनाओं को काफी बल मिला है। शोधकर्ताओं ने एक पत्रिका ‘स्टेम सेल रिसर्च
एंड थेरेपी’ में अपने अनुसंधान पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है।
मोटापा को लेकर शोध कर रहे भारतीय वैज्ञानिकों ने यह भी कहा है कि सीधे तौर पर मोटापा कैंसर का कारण नहीं है। लेकिन, कैंसर रोगी के मोटे होने के आधार पर कैंसर का व्यवहार और पूर्वानुमान भिन्न हो सकते हैं। कई अलग-अलग कारक मोटापे का कारण बन सकते हैं। प्राकृतिक तौर पर इसकी एक बड़ी वजह अनुवांशिक है। डीएनए में एक म्यूटेशन या मामूली बदलाव से कोई व्यक्ति मोटा हो सकता है। लेप्टिन सिग्नलिंग पाथवे को निष्क्रिय बनाकर ऐसा होना संभव है। लेप्टिन सिग्नलिंग पाथवे भोजन की मात्रा, ऊर्जा की खपत और शरीर में वसा सामग्री को विनियमित करने में अपनी भूमिका निभाता है।लेप्टिन की कमी से उत्पन्न मोटापे का कैंसर पर प्रभाव निर्धारित करने के लिए, पुणे के राष्ट्रीय कोशिका विज्ञान केंद्र (नेशनल सेंटर फॉर सेल साइंस) (एनसीसीएस) के डॉ. मनोज कुमार भट और उनकी अनुसंधान टीम ने आहार-प्रेरित मोटापे तथा आनुवांशिक रूप से जुड़े मोटापे के कारण बृहदान्त्र कैंसर के मामले और इसकी वृद्धि में अंतर का अध्ययन किया।प्रयोगशाला में उत्पन्न किये गए चूहों के अध्ययन से इन दो समूहों के बीच महत्वपूर्ण अंतर का पता चला। इसके अलावा, इन अंतरों को दो महत्वपूर्ण अणुओं, लेप्टिन और टीएनएफ अल्फा के बीच संतुलन के बीच दृढ़ संबंध पाया गया, जो कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि को प्रभावित करते हैं। इन अध्ययनों को संस्थागत पशु आचार समिति के अनुमोदन से लागू किया गया, जिसमें लागू नियमों के अनुसार मानवीय और नैतिक प्रक्रियाओं का पालन किया गया। उन्होंने बृहदान्त्र कैंसर के संदर्भ में आहार-प्रेरित और आनुवांशिकी संबंधित मोटापे के बीच आणविक संबंधों में बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान की है। कैंसर के प्रबंधन के प्रति किसी प्रभाव तथा संबद्धता के निर्धारण के लिए, ये निष्कर्ष और अधिक गहन नैदानिकअध्ययनों के लिए प्रेरित करते हैं।
जीभ के कैसर पर शोध इसी तरह जीभ के कैंसर के लिए निकट भविष्य में एक नई थैरेपी
मिल सकती है। हैदराबाद स्थित डीएनए फिंगर प्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक्स केन्द्र के
बायोटेक्नोलॉजी वैज्ञानिकों ने एक नये तंत्र की खोज की है, जिससे एक कैंसर
रोधी प्रोटीन परिवर्तित होने पर कैंसर को और बढ़ने से रोकता है।मनुष्य की कोशिकाओं
में पी53 नाम का एक प्रोटीन होता है। यह काफी मददगार है, क्योंकि यह
कोशिकाओं के विभाजन और क्षतिग्रस्त डीएनए की मरम्मत सहित अनेक मूलभूत कार्यों को
नियंत्रित करता है। यह डीएनए के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़कर कार्य करता है, जिससे प्रोटीन बनने
में मदद मिलती है, जिसकी नियमित कोशिकीय कार्यों में आवश्यकता होती है साथ ही यह
कैंसर विकसित होने से रोकने में प्रभावी भूमिका निभाता है।यदि बीमारी बढ़ने
लगती है, तो कैंसर को रोकने में इसकी क्षमता में काफी कमी आ जाती है। हाल के
अध्ययनों से जानकारी मिली है कि कुछ विशेष और साधारण परिवर्तित पी53 रूप कैंसर की
वृद्धि में सक्रिय रहते हैं।
एक नये अध्ययन में सीडीएफडी के
वैज्ञानिकों ने भारतीयों में होने वाले जीभ के कैंसर के दुर्लभ पी53 रूप की पहचान की है, जिससे ये म्यूटेंट
पी53 कैंसर का कारण बनता है। इसके लिए उन्होंने सर्जरी के बाद मरीजों की
जीभ के कैंसर के नमूने एकत्र किए और उसे टीपी53 नाम के एक जीन में
बदलने के लिए स्क्रीनिंग की। यह जीन डीएनए में न्यूक्लीयोटाइड का अनुक्रम है, जो पी53 प्रोटीन तैयार करने
के लिए सांकेतिक अंक है।आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर वैज्ञानिकों ने
म्यूटेंट पी53 प्रोटीन के जीन की पहचान की। इसमें से एक जीन जिसे एसएमएआरसीडी1 कहा जाता है, सबसे महत्वपूर्ण
है। एसएमएआरसीडी1 एक प्रोटीन को सांकेतिक शब्दों में बदलता है, जो एक अन्य
प्रोटीनों के साथ मिलकर एक मल्टीप्रोटीन कॉम्पलेक्स बनाता है। वैज्ञानिकों ने पाया
कि ऐसे में एसएमएआरसीडी1 भारतीयों में जीभ के कैंसर में देखने
को मिलता है। अन्य अध्ययन दर्शाते हैं कि ऐसे में एसएमएआरसीडी1 की क्षमता जीभ के
कैंसर की कोशिकाओं में कैंसर को बढ़ाने की क्षमता रखती है। स्वास्थ्य एवं रोग
की स्थितियों से भी यह संबंधित है। अब यह माना जा रहा है कि बदलावों को समझ पाना
कि यह समुदाय जीवन के निर्णायक चरणों के दौरान गुजर रहा है, किसी व्यक्ति के
स्वास्थ्य की स्थिति के निर्धारण एवं अनुमान में बड़ी भूमिका निभा सकता है।