आज पत्रकारिता गरीब की आवाज नहीं, ताकतवर का बयान है। आज अखबार पाठक के लिए नहीं विज्ञापनदाताओं के लिए निकलते हैं। चिन्ता की बात यह है कि आज मीडिया कई संकटों के गुजर रहा है। झूठ की रिपोर्टिंग की कहीं सुनवाई नहीं है। यह बातें मेरी नही है, कुछ दिनों पहले दिल्ली के हिन्दी अकादमी द्वारा आयोजित तीन दिवसीय शहीद भगत सिंह साहित्य महोत्सव के अंतिम दिन “मीडिया आज” विषय पर आयोजित जोरदार बहस में यह बातें कही गयीं। इस पर अब सभी को विचार करना चाहिये और तय करना चाहिये कि, आने वाले समय में मीडिया का स्वरूप् कैसा हो जिससे की देश को एक नयी मिल सके। इस कार्यक्रम में शीबा असलम फहमी के संयोजन में ओम थानवी, प्रियदर्शन, सोमा चैधरी और वृंदा ग्रोवर जैसी बडी हस्तियों के साथ दर्शकों ने बहस में हिस्सेदारी की थी। इस कार्यक्रम में वक्ताओं ने कहा कि 900 चैनल और 800 अखबार मिलकर भी एक सौ तीस करोड़ लोगों की आवाज नहीं बन पा रहे हैं। अखबारों और टीवी चैनलों में रोज केवल दो- तीन खबरें ही प्रमुखता से रहती हैं। मीडिया ने 80 करोड़ लोगों को अपना उपनिवेश बना रखा है, जिनकी कीमत पर चालीस करोड़ लोग विकास कर रहे हैं।
सुप्रसिद्ध वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा कि मीडिया पर कानून को हावी नहीं होना चाहिए। मीडिया को रेगुलेट करने के लिए अर्धन्यायिक संस्थाओं को मजबूत बनाना जरूरी है। जिसे हम अभी तक अंजाम नही दे पाये है। पत्रकार प्रियदर्शन ने कहा कि आजकल चैनलों और अखबारों के दफ्तरों में हमें फोन पर बेशुमार धमकियां मिल रही हैं। सरकारी एजेंसिया मौन है और कुछ नही कर रही है। इसके बावजूद पिछले 25 साल में लोकतंत्र का विस्तार मीडिया के कारण संभव हुआ है। तहलका की पूर्व संपादक सोमा चैधरी ने सार्थक मीडिया की अर्थव्यवस्था का सवाल उठाया कि जब तक जनता अच्छे मीडिया के लिए पैसे खर्च नहीं करेगी, तब तक उसे अच्छा मीडिया नहीं मिल सकता। उन्होंने कहा कि मूड या भावावेश के आधार पर हमेशा रिपोर्टिंग हुई है। आज वैसे पत्रकारों की सख्त जरूरत है, जो तथ्यों के आधार पर रिपोर्टिंग करें। लेकिन आज के परिवेश में इतना कहां हो पाता है।
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने सवाल उठाया कि आज न इमरजेंसी है न ब्रिटिश शासन, फिर भी मीडिया सच क्यों नहीं लिखता ? उन्होंने कहा कि आज सरकारें मीडिया को तरह तरह से खरीदने की कोशिश में लगी हैं। संकट यह है कि आज कोई संस्था ऐसी नहीं है, जो हमें मीडिया के अन्याय से बचा सके। आज मीडिया देश की जिस अर्थव्यवस्था को प्रमोट कर रहा है, उसमें 94 प्रतिशत जनता की भागीदारी नहीं है। बहस में भाग लेते हुए कई श्रोताओं ने पूछा कि निराशा के दौर में नये पत्रकारों को क्या करना चाहिए? जवाब में वक्ताओं ने कहा कि हमें बड़े पैमाने पर सच्चाई के साथ रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों और संपादकों की जरूरत है किन्तु बडे हैरत की बात है कि आज तक इस बात पर कोई गंभीर नही है।
इस कार्यक्रम की सबसे खास बात यह है कि कविता पाठ के सत्र में सविता सिंह की अध्यक्षता और अंशु मालवीय के संयोजन में 13 कवियों ने अपनी कवितायें पढ़ीं और यह समझाने की कोशिश की कि आने वाले समय में पत्रकारिता का स्वरूप कैसा होगा। किन्तु सबसे खास बात यह रही कि मीडिया को लेकर आयोजित हुए इतने बडे कार्यक्रम को खुद मीडिया ने स्थान नही दिया। न कहीं चर्चा हुई और न ही समाज के बीच कोई संदेश जाने दिया गया।
आज मिडिया सच पे नहीं , चंद लोगों की सोच पे निर्भर है ।