पिछले दिनों कानपुर में जो पुलिस वालों के साथ हुआ वह सही नही था लेकिन उस व्यवस्था के जिम्मेदार वह ही थे जो इसमें वीरगति का प्राप्त हुए, इस घटना ने यह साबित कर दिया कि प्रदेश में पुलिस का उपनिवेश चेहरा क्या है उसके काम करने का तरीका क्या है। आदित्यनाथ की सरकार हो या किसी की सरकार लगभग सभी में पुलिस का यही चेहरा दिखता है। जनता परेशान है , उसे इसका कोई हल नही दिखता हर बार विकल्प का तलाश करती है सरकार बदलती है लेकिन पुलिस वही रहती है उसके क्रिया कलाप में केाई बदलाव नही होता।
इसी तरह विकास दूबे एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक एैसी व्यवस्था है।जिसे ऑंखें अनदेखी करने का अभ्यस्त हो गई हैं वर्ना हर गॉंव और गली एवं नगर और कस्बा में एक विकास दुबे सक्रिय है। जो इसी पुलिस द्वारा पोषित है । समाज में इनकी स्वीकृति का एक जटिल कारण तंत्र है और इनकी सामाजिक शक्ति लोकवादी राजनीति में इन्हें महत्वपूर्ण बना देती है। निर्वाचन की राजनीति को जीतने के लिए आपकी कलम चाहिए तो किसी की तलवार भी और इतने से भी काम न चल पाए तो किसी की पाजेब भी ले आएँगे ।यदि मैं चित्रकार होता तो एक ऐसा चित्र बनाता जिसके कर्ता यानि कि विधायक विधि की पुस्तक पर दस्तखत करने के लिए जाति -भाषा -धर्म एवं क्षेत्र आदि कई तरह की स्याही का उपयोग कर रहे होते।सारे विधायकों (ये व्यक्ति का नहीं बल्कि दल का प्रतीक हैं)के कमर में रक्त से सनी एक तलवार लगी होती जिसका रक्त स्याही के पूरक के तौर पर कलम के लिये प्रस्तुत होता। विधायक जी के पैरों में घुँघरू बंधे होते और इनकी थिरकन से मदहोश जनता प्यालों पर औंधे मुँह गिरी होती।
सही मायने में देखा जाय तो एक मकान गिरने से विकास दुबे नहीं मरता है और न ही एक व्यक्ति के मरने से। अतीक अहमद ,मुख्तार अंसारी , हरीशंकर तिवारी से लेकर अनन्त सिंह तक शहाबुद्दीन से लेकर साधु यादव तक सब विकास दुबे ही तो है। राजनीति शहाबुद्दीन में धर्मनिरपेक्षता और अजय सिंह में राष्ट्रवाद का लेबल लगाने में निपुण है ।साकी जानती है कि मद्यप को नीट के बजाय सोडा या पानी के साथ पीना अच्छा लगता है।लेकिन इनकी एक खासियत यह भी है कि जैसे पुलिस की कोई जाति नहीं होती वैसे ही विकास दुबे की भी कोई जाति नहीं होती न ही इनका कोई धर्म होता है।ये तो सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास में यकीन रखते है।हमारा संविधान बूढ़ा पड़ चुका है।संस्थानों का जबड़ा टूट गया है जनता अमरूद लिखा धतूरा खा रही है।लोग कहते हैं कि इसके पहले ऐसा नहीं होता था।आप कल भी कहेंगे कि पहले ऐसा नहीं होता था।कानपुर की घटना अपराघ की दुनियाँ का अपवाद नहीं बल्कि स्नातक का प्रमाण पत्र है।
अब बात उनके परिवार की ,तो पुलिस को यह समझना चाहिये कि उनका इसमें दोष है या नही यह तय करके ही परेशान करे लेकिन जैसे ही विकास दुबे की घटना सामने आती है तो वह उसे तो नही पकड पाती बल्कि उसके परिवार को साफ करने में लग जाती है रिश्तेदार मार दिये जाते है इतना ही नही जिन्हें वह जानता था जिसका घटना से कोई सरोकार नही उन्हें भी उत्पीडन का शिकार बनाती है यह गलत है। अगर विकास दुबे ने गलती की है उसे सजा मिलनी चाहिये लेकिन जो बिना गलती के सजा भुगत रहें है उनका क्या ? सरकार को इस पर विचार करना चाहिये खासतौर से पुलिस को व घर गिराने के आदेश को देने वाले अधिकारी को ।मुमकिन है कि विकास दुबे की गिरफतारी के बाद उनका उत्पीडन रूक जायेगा नही तो उसकी गिरफतारी के आड में पुलिस के आला अधिकारी ब्राहमण अधिकारियों व उसके रिश्तेदार ब्राहमणों को मार गिराने में देर न करते।
खैर अब पुलिस को अपने रूप में परिवर्तन करना चाहिये और विवादों व जातिगत समीकरणों से बाहर निकल कर काम करना चाहिये । कोई उसकी जाति का है इसलिये मद्द करना है यह गलत है और यह व्यवस्था देश के लिये अच्छी नही हैं। यदि यह न रूका तो हर गली में उप्र के अतीक ,मुख्तार विजय मिश्रा हरिशंकर तिवारी व राजा भैया होगें तब उसे और दिक्कतों का सामना करना पडेगा।