सैनिक पर पुनर्विचार करने की जरूरत


आप किसी दूरदराज के छोटे कस्बे या गांव में एक किसान के घर जन्म लेते हो.. भरा-पूरा परिवार है, छोटे-छोटे खेत हैं.. जमीन उपजाऊ है या नहीं, फर्क नहीं पड़ता है.. जीतोड़ मेहनत कर के भी जरूरतें पूरी नहीं होती हैं.. आप गांव के किसी प्राइमरी, मिडिल स्कूल में पढ़-पढ़ा के एक ही सपना देखते हो कि एक सरकारी नौकरी मिल जाये- घर का बोझ हल्का हो, वे छोटी-छोटी जरुरतें पूरी हो जाएं और थोड़ा सम्मान की नौकरी हो कि कह पाएं गांव-समाज में कि लड़का अपने पैरों पर खड़ा है….

ऐसे में कौन सी नौकरी इन सब पैमानों पर खरी उतरेगी और पहुंच में भी होगी?… सैनिक की ही न!! देशभक्ति के भाव को कोई कैसे नकारेगा, लेकिन ये अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि पहले जरूरतें दिखती होंगी या देश की पुकार सुनाई पड़ती होगी… वर्ना, हम इतने सारे साधनसम्पन्न लोग तमाम देशभक्ति की कसमें खाते हुए कहाँ तैयार हैं सैनिक बन जाने को, CRPF में चले जाने को, तिरंगे में लिपट कर घर आने को, प्रियजनों को रुलाने को.. तो वो युवा ढूंढ़ तो नौकरी ही रहा था.. उस तलाश ने जरुर उसे वहां लाकर खड़ा कर दिया जहां देश और उसकी जनता पर बाहर-भीतर से हो रही गोलियों की बौछारों पर उसे अपनी चौड़ी छाती सामने कर देनी है, ताकि हम पर आंच न आने पाए… हम अपनी कठिन लगने वाली 9 से 5 वाली कुर्सीतोड़ नौकरियां करते रहें और देश की व्यवस्था (कुव्यवस्था) पर बहस कर सकें, लेख छाप सकें, ट्वीट कर सकें… 

कितनी बार सोचता हूँ कि कैसे कर पाते होंगे ये ऐसी जानलेवा नौकरियां?… क्या इन्हें जितना मिलता है, उसका दस गुना भी दे दिया जाए तो भी ऐसे थाल सजा कर उनसे उनकी ज़िंदगियाँ मांग लेना जायज़ होगा? ये जो घर के भीतर छिपे ‘नाराज़’, ‘पथभ्रमित’, ‘बेरोजगार’, ‘हेडमास्टर के लड़के’ उनकी जानें लेने पर आमादा हैं और उनके रहनुमा, शुभचिंतक, वकील, प्रशंसक इत्यादि जो इस पर खुश होते होंगे, जस्टिफाई करते होंगे… उन सबको ये गरीब किसान के लड़के उस ‘तानाशाही सिस्टम और राज्य’ का एकमात्र प्रतीक भर नजर आते हैं और वे इन बेचारों की बलि लेकर ही वो अपना कुत्सित ‘आंदोलन’ पूरा कर लेना चाहते हैं?… इनकी गरीबी, मजबूरी, बूढ़े मां-बाप और उनके कातर चेहरे नहीं दिखते होंगे कभी… अपना धर्म दिखता होगा, अपने ही धर्म के उस सैनिक का धर्म नहीं दिखता होगा… अगर, सबसे व्यापक धर्म की बात सोचते तो संसाधनों की कमी से जूझते ये सब भी तो भाई ही कहाते उनके…

सरकारें आती जाती हैं, राजनीति होती चलती है, राजाओं के छोटे-बड़े दरबार सजे ही रहते हैं और सैनिक मरते रहते हैं… ना जाने कब से ये सिलसिला चलता आता है और जाने कब तक चलेगा..सीमा के युद्ध में तो दुश्मन मालूम होते हैं लेकिन घर के दुश्मन तो पता भी नहीं चलने देते कि कहां, कब वे आपकी ताड़ में हैं… कौन सी गोली कब किस ओर से भारत माता पर चलेगी और एक सैनिक की छाती को चीरती निकल जायेगी!!

ये हतप्रभ, किंकर्तव्यविमूढ़ देश कुछ और नहीं तो कृतज्ञ भाव से नमन तो अवश्य कर सकता है उन सिपाहियों को जो नौकरी नहीं कर रहे थे, बल्कि जान न्योछावर कर रहे थे… और अगली बार जब किसी सैनिक से हमारी मुलाकात हो तो ये कृतज्ञता का भाव आँखों में जरूर नजर आए!!

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