एक बडे पत्रकार ने अपने लेख में कहा कि क्या कांग्रेस सचमुच जमीन से पूरी तरह कट गई है? या फिर कुछ नेताओं की हताशा कांग्रेस पर भारी पड़ रही है? यह सवाल इसलिए क्योंकि संवेदनशील मुद्दों पर अक्सर कांग्रेस में राहुल गांधी, जो औपचारिक रूप से अब पार्टी के एक सांसद के अलावा कुछ भी नहीं हैं वह अपने बयानों के कारण पूरी पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी कर देते हैं। लाचार पार्टी को भी साथ ही खड़ा दिखना पड़ता है। यह लाचारी क्यों है किसी से छिपा नहीं है। नतीजा जनता तो जनता साथी कहे जाने वाले सहयोगी दल भी पल्ला छुड़ा लेते हैं। वर्तमान भारत चीन सीमा विवाद को लेकर भी यही कुछ हो रहा है।
राहुल गांधी सार्वजनिक रूप से ऐसे सवाल पूछते हैं जिसमें कई बार उनका अल्प ज्ञान और पूरी तरह लोप हो चुकी कूटनीतिक संवेदनशीलता दिखती है। साथी दल भी उन्हें आइना दिखाते हैं लेकिन कांग्रेस पर कोई असर ही नहीं।किन्तु यह सच है कि सरकार से सवाल पूछना विपक्ष का हक है। लेकिन कब और कैसे यह ज्यादा जरूरी है। किसी भी देश की परंपरा रही है कूटनीतिक मुद्दे पर और वह भी तब जबकि पड़ोसी देश से तनातनी हो सवाल से पहले एकजुटता जरूरी होती है। लेकिन यह कांग्रेस में पहले भी नहीं दिखा और अब भी नहीं दिख रहा है। कारगिल के वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सर्वदलीय बैठक बुलाई थी तो कांग्रेस ने बहिष्कार कर दिया।
पिछले दिनों मोदी बैठक बुलाई तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सवालों की झड़ी लगा दी, सरकार के साथ खड़ी होने से मना कर दिया। वह भी तब जबकि दो दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया था कि शहीदों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। चीन जैसे राष्ट्र के खिलाफ पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा सख्त बयान दिया है। नतीजा क्या हुआ, शरद पवार ने राहुल को सीख दी कि सीमा पर सैनिक हथियार के साथ जाते हैं या नहीं, ऐसे सवालों में राजनीतिज्ञों को नहीं उलझना चाहिए। राहुल बार बार यही आरोप लगाते रहे थे कि सरकार ने सैनिकों को निहत्था भेजा था। शरद पवार रक्षा मंत्री रह चुके हैं। वह सच्चाई भी जानते हैं और संवेदनशीलता भी। जबकि मोदी सरकार की सबसे कट्टर विरोधी ममता बनर्जी साफ कहती हैं कि ऐसे संकट के समय में वह सरकार के निर्णय के साथ खड़ी हैं। मायावती याद दिलाती हैं कि यह राजनीति का वक्त नहीं है। तमिलनाडु में जिस द्रमुक का पल्लू थामकर कांग्रेस बढ़ना चाह रही है उसके नेता एम के स्टालिन सरकार के साथ खड़े होने की बात करते हैं। लेकिन कांग्रेस पर कोई असर नहीं। चीन एक बयान जारी करता है और गलवन पर दावा ठोकता है। कुछ ही देर बाद राहुल गांधी भी ट्वीट करते हैं और सरकार को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं।
हर बार कांग्रेस की ओर से सीमा पर विकास की बात उठाई जाती है। इसका ज्ञान लिए बगैर कि पिछले दिनों में क्या हुआ। कांग्रेस नेताओं को इसकी भी याद नहीं कि उनके ही रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने संसद के अंदर ऐसे ही सवाल पर क्या कहा था। उन्होंने कहा कि भारत चीन सीमा पर कुछ क्षेत्रों को अल्पविकसित ही छोड़ना सुरक्षा की दृष्टि से ज्यादा मुनासिब होगा। कुछ दिन पहले राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा कि वह चीन के राजदूत समेत अलग अलग देशों के राजनयिकों से मिलते है तो जानकारी लेते हैं। वैसे सोशल मीडिया किसी को छोड़ता नहीं है। एक व्यक्ति ने उनसे पूछ लिया कि क्या कश्मीर को समझने के लिए आपने पाकिस्तान से राजदूत से मिलने का मन बनाया है। यह सवाल लाजिमी है। क्या राहुल को अहसास ही नहीं कि वह क्या कह रहे हैं।अचरज की बात यह है कि कांग्रेस पर जो भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं उसका कोई जवाब नहीं आता है। कांग्रेस की ओर से अब तक इसपर कोई सफाई नहीं है कि डोकलाम के वक्त राहुल गांधी चीनी राजदूत से मिलने क्यों गए थे और बाद में इस सच्चाई को छुपाने का प्रयास क्यूं किया।
अब यह तथ्य विचार योग्य है कि 2008 में कांग्रेस और कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के बीच एक समझौता हुआ था कि दोनों दल एक दूसरे से राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर मशविरा करेंगे। यह समझौता भारत में कांग्रेस सरकार होने न होने से परे है। इसपर खुद राहुल कुछ क्यों नहीं कह रहे। चीन के साथ भारत का रिश्ता अक्सर तनाव भरा रहा है और 1962 की याद देश को भुलाए नहीं भूलती। लेकिन ऐसे मौकों पर देश के साथ खड़ा होना ही सबका कर्तव्य होता है। राहुल तो सुदूर दक्षिण के राज्य केरल का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन पर ज्यादा जिम्मेदारी है।
प्रणाम। आपने कांग्रेस की पराजय की नब्ज़ पकड़ ली है संजय जी। आपका यह लेख मेरे इस कथन को सत्यापित करता है।
Sharyat your thoughts are very good and inspirational