भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में ऐसा पहली बार देखने को मिला कि विपक्ष सत्ताहीनता की स्थिति में अपना मानसिक सन्तुलन इतनी तीव्रता के साथ खोता जा रहा है कि उसे कल्पना और यथार्थ की स्थिति में अन्तर का बोध भी नहीं रह गया है। नरेन्द्र मोदी के प्रथम कार्यकाल में विपक्ष समेत कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने जिस प्रकार देश में भय का वातावरण निर्मित करने का प्रयास किया जनता ने उसकी तीव्र प्रतिक्रिया उन्हें सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में दिखा दी। कुछ सीमा तक उन्हें अपने अपप्रचार का आभास तो हुआ किन्तु अब भी अपने हृदय में धँसे पराजय के इस शूल को वे अब तक निकाल पाने में समर्थ नहीं हो पाये हैं। गत कार्यकाल में उन्होंने देश की प्रतिष्ठा को धूमिल करते हुए जिस प्रकार देश की सेना और राष्ट्रभाव का तिरस्कार किया तथा जनमानस को धर्म और जाति के आधार पर विभाजित कर पुन: सत्तासीन होने का स्वप्न देखने का दुस्साहस किया, उस अभिवृत्ति का परित्याग कर पाना उन्हें निरन्तर कठिन प्रतीत हो रहा है।
हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने इमरान के समक्ष कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता को लेकर जिस प्रकार भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को अपमानित करने का प्रयास किया उसे लेकर विपक्ष मानो इसी प्रकार के किसी अवसर की प्रतीक्षा में तत्पर बैठा था। उन्हें ट्रम्प के बयान पर तो तुरन्त विश्वास हो गया किन्तु अपने देश के प्रधानमन्त्री पर उन्हें विश्वास न तो होना था और न हुआ। इसी प्रकार उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक पर भी स्पष्टीकरण माँगा था। विचारणीय विषय यह है कि भारत का सदैव से यह दृढ़ मत रहा है कि कश्मीर का मुद्दा द्विपक्षीय है। इससे इतर सोचने का साहस तो वामपन्थियों की सत्ता के समय में भी नहीं हो पाया था जबकि वर्तमान में उन्हें पाकिस्तान का पक्ष लेते हुए विवाद करते सुना गया है। भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद बन्द नहीं करता है तब तक किसी भी स्थिति में वार्ता हो पानी सम्भव नहीं है, मध्यस्थता की तो बात ही क्या? इस पर भी यदि विश्वास न हो तो कर्तृत्व को देखकर विश्वास कर लेना चाहिए था कि यदि वार्ता ही करनी होती तो पाकिस्तान की सीमा में घुसकर दो-दो बार सर्जिकल स्ट्राइक नहीं की जाती। विपक्ष को तब भी शर्म नहीं आयी जब स्वयं अमेरिकी विदेश मन्त्रालय ने ऐसी किसी मध्यस्थता का खण्डन किया। हमारे देश के विदेशमन्त्री श्री एस. जयशंकर ने स्वयं संसद में बयान दिया कि कश्मीर के विषय में अमेरिकी राष्ट्रपति से कोई वार्ता ही नहीं हुई थी और विदेशमन्त्री स्वयं प्रधानमन्त्री के साथ ही थे।
विपक्ष देश की प्रतिष्ठा को इस प्रकार लगातार धूमिल करता जा रहा है। उसे इस बात का तनिक भी ज्ञान नहीं रह गया है कि देश की जनता अब पर्याप्त जागरूक हो चुकी है। विपक्ष के वक्तव्यों में निहित भावों का वह स्वयं विश्लेषण कर रही है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के चरित्र और आचार पर प्रश्न खड़ा करने का कोई औचित्य ही नहीं बनता है। उनके लिए देश सदैव सर्वप्रथम रहा है और रहेगा। विपक्ष वैश्विक स्तर पर भारत की बढ़ती प्रतिष्ठा मात्र इसलिए नहीं पचा पा रहा है क्योंकि इसे इस शिखर तक लाने में भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी का सबसे बड़ा योगदान है। अपने विवेक के अनुसार विपक्ष तो नरेन्द्र मोदी को अपमानित करना चाहता है किन्तु वह उन्हें अपमानित करने के बजाय अपने स्वभाव के अनुकूल मदान्ध होकर वह देश की प्रतिष्ठा को विकृत कर बैठता है। अभी तो नयी सरकार के गठन को मात्र 50 दिन ही हुए हैं, निकट भविष्य में चन्द्रयान की विफलता की कामना और भावी तकनीकी उपलब्धियों की अप्रासंगिकता के तर्क गढ़े जायेंगे। आश्चर्य नहीं कि उनके कुछ नेता पाकिस्तान और चीन के दौरे पर भी निकलें और देश की कमजोरियों को उनके सम्मुख व्यक्त करें। वे कहते रहेंगे कि देश की अस्मिता की रक्षा के लिए हम सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हैं किन्तु परोक्ष में वे ऐसे उद्यम करते रहेंगे जिससे देश को कहीं न कहीं शर्मसार होना पड़े।
अब तो उनकी निराशा उस पराकाष्ठा को स्पर्श कर चुकी है जहाँ से उनका वापस होना कठिन प्रतीत होता है। वे कुण्ठा के उस दलदल में फँस चुके हैं जहाँ से निकलने का प्रयास करने पर वे और अधिक धँसते जायेंगे। अपनी नियति की गाथा वे स्वयं लिखने को आतुर हैं जिसकी परिणति उनकी उसी आकांक्षा के अनुरूप होने वाली है।