पद्मावती जैसी समस्त वीरांगनाएँ हमारे राष्ट्र का गौरव

आज भले ही हमारी सांस्कृतिक धरोहरों की विशाल सम्पदा का दोहन मनोरंजन का सतत साधन बनता जा रहा हो किन्तु इस ओर कभी किसी की दृष्टि नहीं जाती कि जिन महापुरुषों और मातृशक्तियों के गौरवशाली इतिहास का उपयोग करके अकूत सम्पत्ति अर्जित करने की आकांक्षा होती है उनके प्रति हमारे कुछ नैतिक कर्तव्य भी होते हैं। मात्र उपन्यासों, पटकथाओं और नाटकों में उन हुतात्माओं के पात्रों को मनोरंजन के लिए उपयोग में लाकर अर्थसिद्धि का यत्न करना ही यथेष्ट नहीं होना चाहिए। इन गौरवशाली महापुरुषों का जीवन समाज के लिए कितना आदर्श स्वरूप है इस ओर भी पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता है। सम्पत्ति अर्जित करने के अनेकानेक उपाय होते हैं। कतिपय लोग अनैतिक आचरणों से सम्पदा का नियोजन करते हैं और ऐसे भी लोग हैं जो सत्यनिष्ठा का आचरण करते हुए भी सम्पदा का सृजन कर लेते हैं। भ्रष्ट माध्यमों से सम्पत्ति का अर्जन पर्याप्त रूप से सरल होता है किन्तु उसके परिणाम बड़े ही भयावह होते हैं। दूसरी ओर सत्यमार्ग के अनुगामी का पथ दुष्कर हो सकता है किन्तु वह अन्तिम परिणाम के प्रति आश्वस्त रहता है।

महारानी पद्मावती भारतीय इतिहास की ऐसी पात्र हैं जिनके त्याग, शौर्य और बलिदान की गाथा किसी एक फिल्म के पर्दे में नहीं उतारी जा सकती। इतिहास खंगालने पर अनेक ऐसे अनछुए तथ्य संज्ञान में आ सकते हैं कि जिनका फिल्मांकन किया जाये तो फिल्म में बिना किसी नकारात्मक भाव का समावेश किए उसे अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय बनाया जा सकता है और धनार्जन की आकांक्षा भी पूरी की जा सकती है। कोई भी सत्पुरुष हो, उसका चरित्रांकन करते समय यह अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि मनोरंजन के हेतु के पीछे किसी भी रूप में उसकी गरिमा यदि कल्पना के संयोग से बढ़ा पानी सम्भव न हो तो उसे धूमिल होने से भी बचाना उतना ही अपरिहार्य है। महारानी पद्मावती इतिहास में अपने त्याग, बलिदान और कर्तव्य को छोड़कर किन्हीं अन्य कारणों से चर्चित कभी नहीं रहीं। हिन्दू परम्परा में स्वीकार्य अनेक देवियों की भाँति उनका सौन्दर्य भले ही अप्रतिम रहा हो किन्तु उस सौन्दर्य की साधना समस्त भारतवासी शक्ति की उपासना के रूप में करते हैं। भारतवासियों के लिए पद्मावती का स्थान दुर्गा से किंचित भी न्यून नहीं है। इतिहास में अपनी विकराल वीरता के लिए विख्यात उनके सेनापति गोरा और बादल उन्हें माँ कहकर सम्बोधित किया करते थे, इसी से उनकी महानता का अनुमान लगाया जा सकता है।

किन्तु देश में एक वर्ग ऐसा भी है जो भारतीय संस्कृति को विकृत करने में विदेशी आक्रान्ताओं से भी अधिक मुखर है। उन्हें अपने देश के गौरवशाली अतीत पर गर्व नहीं होता है बल्कि वे विदेशी संस्कृति, उनके वाहकों और प्रवर्तकों से अधिक प्रेरित दिखाई देते हैं। उन्हें विश्व को ज्ञान की ज्योति से पूरित करने वाले भारत के सन्तों, साधकों, महर्षियों और बलिदानियों को अपमानित करने और उन्हें नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत करने में हर्ष की अनुभूति होती है। महापुरुषों की कही गयी बातों की अविवेकपूर्ण व्याख्या करके उनके संदेशों को गलत ढंग से प्रस्तुत करने में उन्हें अपनी विद्वत्ता का बोध होता है। किन्तु सत्य को किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं होती है। आश्रय की आकांक्षा असत्य को ही होती है। असत्य का आवरण हटने पर सत्य स्वयमेव सम्मुख आ जायेगा। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम गुजरात के चुनावों में भी देख सकते हैं। माननीय राहुल गांधी जी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिन्दू मन्दिरों को छोड़कर अन्य कहीं भी जाने में गर्व का अनुभव करते थे, किन्तु अब उन्हें भी अन्तत: भगवान सोमनाथ के शरण में जाना पड़ा, और केवल भगवान सोमनाथ ही नहीं बल्कि अब तो मन्दिरों की अनेक शृंखलाएँ उनकी आस्था का केन्द्र बन रही हैं। अब वे मस्जिदों या फतवे का आश्रय नहीं ले रहे हैं। (कहीं इसका अर्थ यह न निकाला जाये कि वे साम्प्रदायिक हो रहे हैं)। अत: निष्कर्ष यही निकलता है कि सत्य को जानबूझकर नकारने से उसका अस्तित्व नहीं समाप्त होता है बल्कि स्वयं को ही छलावा दिया जाता है।

अन्त में मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि अपने देश के गौरव की रक्षा के सन्दर्भ में अपने देश के महापुरुषों अथवा देवियों का असम्मान नहीं किया जाना चाहिए और न धन या यश की लालसा में अपने इतिहास को विकृत किया जाना चाहिए।

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