हाल में, कलकत्ता के एक अंग्रेजी अखबार ने भारत में पाकिस्तानी उच्चायुक्त बासित का इंटरव्यू छपा जिसमें उसने पुनः भारत की आलोचना की और कहा कि जम्मू कश्मीर के लोगों से पूछ लिया जाये कि वे किसके साथ रहना चाहते हैं? इतना ही नहीं, चंडीगढ़ के एक अंग्रेजी दैनिक ने उस समय जब भारत को पाकिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापी समर्थन मिल रहा है, एक ऐसा लेख छापा जिसमें बताया कि इस समय पाकिस्तान को दुनिया के देशों, जिसमें अमरीका, चीन, रूस, शामिल हैं बेहद आत्मीय समर्थन मिल रहा है और भारत वैश्विक कूटनीति में अलग थलग पड़ गया है। इसको पढ़ कर, इतना कुतार्किक और झूठ पर टिके लेख से एक बारगी ऐसा लगा कि हम भारत का नहीं बल्कि पाकिस्तान का डॉन या पाकिस्तान टाइम्स अखबार पढ़ रहे हैं। स्वतंत्र पत्रकारिता का हम सभी समर्थन करते हैं। यह भी कि सत्ता पक्ष की नीतियों का पुरजोर विरोध करना या आलोचक लेख एवं संपादकीय लिखना पत्रकारिता का स्वीकार्य अंग है। इसके बिना लोकतंत्र अधूरा और बेमानी हो जाता है और फिर हम में तथा तानाशाहियों में कोई फर्क नहीं रहता लेकिन क्या राष्ट्र और समाज के प्रति संवेदना रहित होकर शत्रु के आक्रमण के समय उसके पक्ष में लिखना और अपने देश के प्रति आक्रामक वक्तव्य देना और शत्रु देश के कलाकारों को आतिथ्य देना क्या राजनीतिक एवं पत्रकारिता की स्वतंत्रता का हिस्सा मन जायेगा? जो लोग संसद पर हमला करने वाले गिलानी को फांसी के फंदे से छुड़ाने के लिए समितियां बनाते रहे वे शहीदों के लिए शोक सभा या श्रद्धांजलि देते हुए आज तक क्या देखे गए ? इन लोगों का न तो कोई ईमान होता है और न ही कोई सिद्धान्त। ऐसी पत्रकारिता पर भी गौर होना चाहिए और ऐसे लोग हमारे बीच के ही हैं, वो हमारे ही हैं, उन्हें बस दिशा देने की ज़रूरत है। समझ जाएंगे। अन्यथा, इनके लिए किसी विचार स्वातंत्र्य का रक्षा कवच देना देश के प्रति अपराध ही होगा।