प्राण न्यौछावर करने वालों पर सरकार की नीति स्पष्ट

indian-armyदेश की आजादी को लगभग सत्तर साल हो रहे है और हम पूरी तरह से इस बात को भूल गये है कि हमारा देश आजाद हुआ था। किसके बलिदान पर हुआ था, उसे भूल गये है , जिसकी बदौलत हम खुली हवा में सांस ले रहें है उन पर राजनीति कर रहें है, बंटवारें के दर्द को भुलाकर एक नये दिशा की ओर जाना था लेकिन कहां है अपना राह भूल चुके है और उस राह पर जा रहें है जो हमारे देश को पतन की ओर ले जा रहा है। पूरे देश में आतंकवाद सिस्टम की वजह से पनप रहा है और हम खामोश है। क्या यह सही है इस पर विचार करना चाहिये और अभी ही निर्णय लेना चाहिये। गंदी राजनीति का आलम यह है कि आजादी के बाद जहां खान अब्दुल गफार खां उर्फ सीमांत गांधी जो कि पाकिस्तानी है उनको भारत रत्न दिया जाता है लेकिन भगत सिंह राजगुरू व सुखदेव समेत कईऐसी विभूतियां है जिनके लिये सरकारों को कुछ करना चाहिये लेकिन नही किया । जब भी किसी भी तरह की चर्चा हुई उनको बंटवारें के बाद पाकिस्तान के लिये छोड दिया जाता है। शायद उनकी गलती यह थी कि उन्होने अंग्रेजी हूकूमत के खिलाफ काम किया वह नही जानते थे कि आजादी के बाद पाकिस्तान भी बनेगा और अंग्रेजों को खुश करने वाले लोग उनके आस्तिव को भी दफनाने में कोई कोर कसर नही छोडेगे। हालात यह है कि देश के इन जाबांजो पर अब कोई दो शब्द भी नही बोलना चाहता।

ऐसा एक दो लोगों के साथ नही है , आजादी की लडाई में अंग्रेजी हुकूमत को परेशान करने वाले व फांसी की सजा पाने वाले सभी शहीदों के साथ ऐसा ही हुआ। 18 अपैल 1898 को दामोदर चापेकर को उनके दो भाइयों बालकृष्ण चापेकर व बासुदेव चापेकर को फांसी पर चढा दिया गया, तब भी ऐसा ही हुआ । 11अगस्त 1908 को खुदीराम बोस को फांसी दी गयी ,16 अगस्त 1909 को मदन लाल धींगरा के फांसी पर चढाया गया,18 अपैल 1910 को अनंत कान्हरे को फांसी दी गयी, 8 मई 1915 को मास्टर अमीन चंद व अवध बिहारी को फांसी दी गयी , 16 नवम्बर 1915 को करतार सिंह सराबा को फांसी दी गयी, 17 नवम्बर 1915 को विष्णु गणेश पिंगल को फांसी पर लटकाया गया, तब भी एैसा ही हुआ। इसके बाद 18 दिसम्बर 1927 को अशफाक उल्ला खां को फांसी दी गयी , 17 दिसम्बर 1927 को राजेन्द्र लाहिडी को फासीं दी गयी , तब भी ऐसा ही हुआ। 12 जनवरी 1931 को सबसे पहले जगन्नाथ शिन्दे को फांसी पर लटकाया गया , बाद में सजा से एक दिन पहले ही 23 मार्च 1931 को भगत सिंह , राजगुरू व सुखदेव को फांसी दी गयी, इसके बाद 9 जून 1931 को हरिकिशन को फांसी पर लटका दिया गया, तब भी आजादी का सुख भोगने वाले कुछ न तो उस समय बोले थे न उनके वंशज आज बोलना चाहते है। 11 जनवरी 1935 को सूर्यसेन को और 26 अक्टुबर 1934 को ब्रजकिशोर चक्रवती को फांसी दी गयी। 2 जुलाई 1934 को असित भट्टाचार्य को फांसी पर लटकाया गया, 12 जून 1940 को उधम सिंह को फांसी दी गयी, 16 जून 1943 को कुसाल कोंवर को फांसी की सजा दी गयी। तब भी यह सभी खामोश रहे और पूरी कोशिश की इनका नाम जनता के बीच न जाये वह तो गनीमत थी भगत सिंह , राजगुरू व सुखदेव का नाम लोगों की जुबां पर था इसलिये उनका नाम जिंदा रह गया नही तो उनकी शहादत को भी बट्टा लगा गये होते।
इन विभूतियों के अलावा वटुकेश्वर दत्त जिन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली, चन्द्रशेखर आजाद जो 23 फरवरी 1931 को अल्फेड पार्क में शहीद हुए, बसुदेव बलवंत फडके जो कि कालापानी की सजा मिलने के बाद 18 फरवरी 1883 में शहीद हो गये, लाला लाजपत राय जो कि अंग्रेजों की लाठी सेधायल हुए और बाद में दम तोड दिया, वीर सावकर जिन्हें कालापानी की सजा मिली और देश के लिये प्राणों की आहूति दे दी । सवाल यह नही कि उन्होने किसके लिये किया , बेशक देश के लिये किया लेकिन देश व उनके नुमांइदों को क्या करना था वह इस मामले पर पिछड गये और आज हालात यह है देश जानता ही नही ।
इस पूरे मामले पर गौर किया जाय तो पूरी गलती शिक्षा के गलत नितियों की है हम विदेशों में क्या हुआ, मुगल कैसे थे , अफगान कैसे थे , मंगोल कैसे थे , अंग्रेज व फांसीसी कैसे थे देश को यह बताने में लगे रहे , यह नही बताया कि हम कैसे थे हमने कैसे इनके खिलाफ लडाई लडी , इन्होने हमारे साथ क्या किया , हम कैसे आजाद हुए । न तो यह किसी शैक्षिक व्यवस्था का हिस्सा है और न ही किसी सरकार ने इस पर कोई काम किया । केन्द्र सरकार को यह करना चाहिये था लेकिन तत्कालिक सरकारें अंग्रेजों को खुश करने के लिये इस मामले पर मौन रही , इतना ही नही उनके गांव व आसपास उनके नाम का दमन भी किया गया। उन्हें देश द्रोही तक करार दिया गया। जो कि गलत था। इस पूरे मामले में प्रदेश सरकारें भी कम नही थी । आजादी की लडाई में किसने प्राणों को न्यौछावर किया, उसे उन्होने अपने प्रदेश में तहजीफ नही दी, न ही पुस्तकों में वर्णित किया न ही शिक्षा का अंग बनाया। यदि वह चाहते तो इसे शिक्षा का अंग बनाते और अपने प्रदेश में न सही विभूतियों के अपने जिले में कार्यक्रम कर उन्हें सम्मान देते लेकिन ऐसा नही किया । आज भी कोई इस मामले पर कुछ करने को तैयार नही है।

अब जबकि केन्द्र में राष्ट्रवादी सरकार है और बहुसंख्यक समुदाय के दमन की नीति से किनारा करना चाहिये । जब भगतसिंह समेत कई देशभक्तों ने इस देश के लिये अपने प्राणों की आहूति दी तो उनपर विचार होना चाहिये और उन्हें शहीद का दर्जा व सम्मान इसलिये मिलना चाहिये क्योंकि उस समय भारत संगठित था , पाकिस्तान महात्वांकाक्षां ने बनाया । उसमें उनका दोष नही है। हम सीमांत गांधी को इस व्यवस्था से बाहर रखते है , महात्मा गांधी , जवाहर लाल नेहरू , सरदार बल्लफ भाई पटेल को याद रखते है लेकिन इन शहीदों को कैसे भूल जाते है। जिनका रिकार्ड नही है या जमींदोज कर दिया गया , उनके लिये एक स्थल तो बना सकते है उनको किसी दिन विशेष पर याद कर सकते है। नही तो कौन इस देश के प्राण न्यौछावर करेगा।

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