रक्षाबन्धन मात्र धागों का त्यौहार नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति का आलोक है

rakshabandhanरक्षाबन्धन भारतीय संस्कृति की पुरातन परम्परा का एक अद्भुत वाहक है। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक मानवीय सम्बन्धों के लिए त्यौहारों की परम्परा रही है। माता, पिता, पुत्र, भाई, बहन और पूर्वजों को सम्मान देने के लिए भारतीय सांस्कृतिक व्यवस्था में प्रावधान किये गये थे जिनका निर्वहन आज तक निरन्तर किया जा रहा है। रक्षाबन्धन की विशिष्टता भाई और बहन के पावन सम्बन्धों को उजागर करने में निहित है। भाई का कर्तव्य बहन के मान और सम्मान की रक्षा करना है। हमारी भारतीय संस्कृति में ‘मातृवत् परदारेषु’ (अर्थात प्रत्येक नारी माता तुल्य है) का उद्घोष किया गया है। वर्तमान में नारी के प्रति बढ़ते हुए अत्याचार और असम्मान का जो विषाक्त वातावरण बनता जा रहा है उसमें उक्त उद्घोष की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। दामिनी से लेकर हाल में बुलन्दशहर की घटना का घटित होना हमारी संस्कृति की अवहेलना के कारण ही है। देश के संविधान में भले ही इन अपराधों के लिए कठोर कानून की व्यवस्था की गयी है किन्तु इसके उपरान्त भी इन कुकृत्यों की गति में मन्थरता का आभास नहीं होता है। मात्र कानून का निर्माण अपराधों की रोकथाम में सक्षम नहीं हो सकता। इसके लिए चरित्र निर्माण की भी आवश्यकता है। हमारे मानस में जब तक मानवीय मूल्यों का बोध नहीं होता तब तक इस प्रकार के आचरणों पर अंकुश लगाना दिवास्वप्न ही सिद्ध होगा। और कहना अतिशयोक्ति न होगा कि भारतीय संस्कृति नैतिक आचरणों का विश्वकोष है। इसे अंगीकार करना ही विश्वशान्ति और चरित्र-निर्माण का एकमात्र विकल्प है।
भारतीय इतिहास के मध्यकाल की एक सत्यकथा है। रानी कर्णावती ने बहादुरशाह के आक्रमण से अपनी प्रजा की रक्षा के लिए हुमायूँ को राखी भेजी। यद्यपि हुमायूँ के लिए इसका कोई महत्त्व नहीं था किन्तु वह भारतीय परम्परा को भली प्रकार जानता था। उसने कर्णावती द्वारा भेजे गये रक्षाबन्धन के धागे को स्वीकार कर उसे अपनी बहन माना और आजीवन उसकी रक्षा का वचन दिया। इस्लाम का अनुयायी होते हुए भी हुमायूँ ने भारतीय संस्कृति की रक्षा की और उसके गौरव को धूमिल नहीं होने दिया।
वस्तुतः रक्षाबन्धन के पर्व का उद्देश्य यही था। जब तक हमारे मनोभाव और दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं होगा तब तक नियमों और कानूनों का कोई महत्त्व नहीं होगा। मराठा सम्राट शिवाजी का कठोर आदेश था कि युद्ध में बन्दी बनायी गयी महिलाओं को ससम्मान वापस भेज दिया जाये। शिवाजी ऐसा इसीलिए कर सके क्योंकि भारतीयता और भारतीय संस्कृति का अध्याय उन्होंने अपनी माता से शैशवावस्था से ही सीखा था। वे समर्थ थे और शक्तिशाली भी थे किन्तु उन्होंने कभी अपनी इस शक्ति का दुरुपयोग नहीं किया।
यह पर्व सार्वकालिक और सम्प्रदाय से पर्याप्त ऊपर है। स्त्री किसी भी जाति, धर्म अथवा सम्प्रदाय की हो, वह सदैव पूजनीय होती है। उसका किसी भी जाति अथवा धर्म से नाता नहीं होता है। वह जननी के रूप में स्रष्टा है। जिसने भारतीय संस्कृति को समझा है और अंगीकार किया है वह बड़ी सहजता से इस मूलभाव को समझ सकता है। इसी संस्कृति का अनुपालन करते हुए हमारे प्रधानमन्त्री जब पाकिस्तान गये तो उन्होंने वहाँ के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ की माता का चरण स्पर्श करने में कोई संकोच नहीं किया। इसके मूल में हमारी संस्कृति की वही अवधारणा है जिसकी चर्चा मैंने पीछे की है।
अन्त में मैं अपने समस्त देशवासियों को रक्षाबन्धन के पर्व की शुभकामनाएँ देते हुए आग्रह करता हूँ कि हमारे देशवासी अपने देश की बहनों के सम्मान और उनकी रक्षा के लिए कृतसंकल्प हों और भारत तथा भारतीय संस्कृति की मर्यादा को बनाये रखने के लिए प्राणपण से तत्पर हों।

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