5 अगस्त से 21 अगस्त तक रियो दि जिनेरियो मे ओलम्पिक स्पर्धा संपन्न हुई। 125 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत की ओर से 122 खिलाड़ियों ने 14 खेलों मे भाग लिया। भारत ने 2 मेडल जीतकर 67 वाँ स्थान हासिल किया। 2012 के लदंन ओलम्पिक में भारत को 6 मेडल प्राप्त हुए थे और 2008 के बीजिंग ओलंपिक मे हमने 3 पदक जीते थे।
1896 में एथेन्स ग्रीस में पहली बार ओलम्पिक स्पर्धा प्रारंभ हुई. उस समय 14 देशों के खिलाड़ी इसमें शामिल हुए थे। प्राचीन ग्रीस देश के ओलिम्पिया नामक स्थान पर यह खेल खेला गया जिससे इसका नाम ओलम्पिक पड़ा। हर चार साल बाद ये अंतरराष्टीय बहु खेल स्पर्धा होती है।
रिओ ओलम्पिक में जब भारतीय दल जा रहा था तब अनुमान लगाये जा रहे थे कि हम 12-14 पदक जीतेंगे। आमोनिया, मोस्डोहा, गे्रनाडा, लिथुआना, एस्टोनिया इन देशों के नाम भारतीयों ने सुने भी नहीं होंगे। लेकिन ये अपने लिए अपरिचित देशों ने रिओ ओलम्पिक में भारत से अधिक मेडल हासिल किये।
क्रिकेट में भारत ने विश्वकप 1983 में जीता और तब से लगातार शीर्ष स्थानों पर ही चमक रहा है। वैसा ही एक समय हाकी में भारत का बोलबाला रहा 1980 तक, पश्चात हाकी में भी हम लड़खड़ाते ही रहे हैं।
साधारणतः भारत पकिस्तान के मैच में खेल प्रेमी टीवी के सामने दर्शक बन बैठते है। लेकिन इस बार रिओ ओलम्पिक में भी ज्यादा रोमांच लोगों ने महसूस किया। सार्वजनिक स्थानों पर बैडमिंटन देखने का प्रबंध किया गया था। इसके साथ ही जो लोग लाइव टीवी पर नहीं थे वे सोशल मीडिया पर या फोन पर एक-दूसरे से स्कोर पूछ रहे थे।
रिओ ओलम्पिक की खास बात यह रही कि महिला खिलाडियों ने सभी भारतीयों का दिल जीता जबकि पुरुष खिलाडियों से निराशा ही मिली।
साक्षी का प्रदर्शन बताता है कि किस तरह से भारत में खेल प्रतिभाओं को तराशने की दिशा में कार्य किया जा रहा है। सिंधु को बैडमिंटन में रजत पदक से संतोष करना पड़ा। सिंधु ने इस जीत के साथ इतिहास भी रच दिया, वह ओलम्पिक में रजत पदक जीतने वाली पहली और पदक जीतने वाली पाँचवी भारतीय महिला खिलाड़ी के साथ-साथ देश की सबसे कम उम्र (21वर्ष) की एथलीट भी बन गई हंै।
साक्षी मलिक ने भी इतिहास बनाया। साक्षी हरियाणा से आती है इस प्रदेश में अधिकतर परिवारों में बेटियों के जन्म लेने पर मातम मनता है यहाँ पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का लिंगानुपात भी बहुत कम है और आज भी लड़कियों के मामले में दकियानूसी सोच बहुत ज्यादा हावी है। ऐसे में साक्षी की ये सफलता ब्रान्ज मेडल मिलने के बावजूद गोल्ड मेडल की तरह चमक बिखेरती दिखाई पड़ती है। ओलम्पिक के इतिहास में भारत के प्रदर्शन की बात की जाए तो साक्षी से पहले ओलम्पिक में तीन महिला खिलाडी – कर्णम मल्लेश्वरी, मैरी काॅम और सायना नेहवाल ही पदक जीत पायी हैं। साक्षी ने महिलाओं की फ्री – स्टाइल कुश्ती के 58 किलोग्राम भार वर्ग में भारत के लिए पदक जीता एवं जीतनेवाली पहली महिला पहलवान भी बन र्गइं।
साक्षी और सिंधू की जीत प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा आयोजित जनसहभागी अभियान ’’बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओं ’’ का बेहतरीन उपहार माना जा सकता है।
रियो में एक और बेटी दीपा कर्माकर ने भी अपनी चमक बिखेरी, उसने जिम्नास्टिक में चौथा स्थान हासिल किया और देश की आंखों का तारा बनी।
भारतीय महिला खिलाड़ियों की ये उपलब्धियां सामाजिक आर्थिक कारणों से भी रेखांकित करने वाली हैं। ओलंपिक में जगह बनाने वाली अधिकांश महिला खिलाड़ी मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों से ताल्लुक रखती हैं।
क्या ओलंपिक के लिए हमारी तैयारी वैसी नहीं थी जैसी होनी चाहिए। हमारा खेल ढांचा अभी भी इसलिए कमजोर है क्योंकि खेल प्रशासक जवाबदेही से दूर हैं। शूटिंग के चैंपियन रहे अभिनव बिंद्रा की इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ’’पदक की उम्मीद पालने से पहले इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि पदक की उम्मीद पालने के साथ निवेश भी जरूरी है।’’ हालांकि सिर्फ निवेश ही अहम मुद्दा नहीं है। पदक के लिए लगन और मेहनत की भी जरूरत होती है। साक्षी और सिंधू ने साबित किया कि सीमित संसाधनों के बावजूद अगर लगन हो तो कामयाबी हासिल की जा सकती है।
जिस किसी ने जिम्नास्टिक का फाइनल देखा होगा उन्होंने ध्यान दिया होगा कि दीपा कर्माकर नंगे पांव प्रदर्शन कर रही थीं जबकि बाकी प्रतिस्पर्धी जिम्नास्टिक के लिए विशेष रूप से डिजाइन किए गये परिधानों में थीं। उनके पिता और परिवार के अन्य सदस्यों के साक्षात्कार से पता चलता है कि प्रशिक्षण की पर्याप्त सुविधा हासिल करने और दुनिया में उच्चतम स्तर की जिम्नास्ट के रूप में गिने जाने तक के सफर में उन्हें किन संघर्षों से गुजरना पड़ा है।
हमारे अधिकारियों का खेलों और खिलाड़ियों के प्रति रवैया इसमें झलकता है कि जब सुनते हैं कि स्प्रिंटर दुतीचंद इकोनाॅमी क्लास में सफर करके रियो पहुंचे जबकि अधिकारी बिजनेस क्लास में थे। खिलाड़ियों को बेहतरीन कोच, उपकरण एवं वित्तीय मदद उपलब्ध कराई जाय।
ओलंपिक से कुछ दिन पहले डोपिंग में भारतीय दल के तीन खिलाड़ी पकड़े गए थे। नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी ( नाडा ) ने पहलवान नरसिंह यादव, गोलाफेंक खिलाड़ी इंद्रजीत सिंह और फर्राटा धावक धर्मबीर सिंह के सेंपल में गड़बड़ी पाई थी। इंद्रजीत सिंह और धर्मबीर ने तो नाडा के निर्णय को स्वीकार कर लिया किंतु नरसिंह ने आरोप लगाया कि कुछ लोगों ने आंखों में धूल झोंककर उनके भोजन में प्रतिबंधित पदार्थ मिला दिया ताकि वह रियो न जा सके। देश की जांच एजेंसी ने निर्दोष करार दिया तो रियो में कोर्ट आॅफ आॅर्बिट्रेशन फाॅर स्पोर्ट्स ( सीएएस ) ने भारतीय पहलवान नरसिंह यादव को डोपिंग का दोषी मानकर उस पर चार साल का प्रतिबंध लगा दिया। डोपिंग के मामले में आज हिन्दुस्थान दुनिया का तीसरा सबसे बदनाम देश है। उससे ऊपर केवल रूस और इटली हैं। जनवरी 2009 से जुलाई 2016 के बीच करीब साढ़े सात साल में भारत के 687 खिलाड़ी नशाखोरी के आरोप में पकड़े गये। मतलब यह कि हर वर्ष औसतन 99 से अधिक एथलीट प्रतिबंधित औषधियों के सेवन के दोषी पाए गये।
नशाखोरी का मुख्य कारण खेलों से जुड़ी शोहरत और पैसा है। ईनाम पाने और नाम कमाने के लोभ में कुछ खिलाड़ी ’’शार्टकट’’ अपनाते हैं। जानबूझकर ताकत बढ़ाने वाली दवा लेते हैं। परंतु पकड़े जाने पर उनकी बरसों की मेहनत मिट्टी में मिल जाती है। वैसे प्रतिबंधित दवा के बारे में भी पहले के मुकाबले कहीं अधिक चेतना की जरूरत है।
खेल और खेल संगठनों में राजनीति काफी है। राजनैतिक नेताओं की दखलंदाजी खूब है, भ्रष्टाचार से यह क्षेत्र ग्रसित है। इससे खेल और खिलाड़ी का नाश हो रहा है, यह मान्य करने की हिम्मत है ऐसा फिलहाल अभी दिख नहीं रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने क्रिकेट नियामक मंडल के सिलसिले में अनेक सिफारिशें की हैं। वैसी ही सभी खेल संघों पर लागू करनी चाहिए।
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, दूसरे क्रमांक की आबादी का देश, सर्वाधिक युवक संख्या रखने वाला देश और ओलंपिक में पदक प्राप्ति के लाले पड़ना अपने आप में आत्मचिंतन का विषय है।
अपने देश में खेल संस्कृति को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इसमें सभी बातें सरकार पर डाल देने से नहीं होगा। खेल संस्कृति को बढ़ावा देने का दायित्व जितना सरकार का है उतना ही क्या हम सब भी निभाते हैं? ये विचार का प्रश्न है।
अमेरिका का क्षेत्रफल भारत से अधिक है लेकिन आबादी बहुत कम है फिर भी उन्होंने पदक तालिका में पहला स्थान प्राप्त किया। ब्रिटेन की आबादी भारत से कम है भौगोलिक क्षेत्रफल भी कम है लेकिन पदक तालिका में उसका स्थान दूसरा है। अपने बगल का चीन आबादी में अधिक है उसने भी पदक तालिका में तीसरा स्थान हासिल किया है। इस पर हम कभी सोचेंगे क्या?
भारत के ओलंपिक में प्रदर्शन पर मीडिया में दो तरह की प्रतिक्रियायें देखने को मिल रही हैं। एक प्रतिक्रिया जो खिलाड़ियों और खेल सिस्टम को कोस रही है और दूसरी उन लोगों की प्रतिक्रिया है जो कह रहे हैं कि अपने यहां खेल संस्कृति ही नहीं हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 50 के दशक की शुरूवात में हमारे और चीन में किसी भी स्तर पर कोई खास अंतर नहीं था। आर्थिक, सामाजिक, गरीबी के पैमानों के बारे में। 1971 में चाउ-एन-लाई ने फिर खेलों पर ध्यान केन्द्रित किया। खेलों को राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा। खेलों को राष्ट्रीय नीति के तहत आगे बढ़ाया। 1960 से 1984 तक चीन ओलंपिक स्पर्धाओं से बाहर रहा और 1984 में पुनः शिरकत की। उस समय वो कुल 23 पदक जीतकर दूसरे स्थान पर रहा। इसके बाद हर ओलंपिक में चीन का दबदबा बढ़ता चला गया। आज वो अमेरिका के समानांतर खेल महाशक्ति है। खेलों के लिए वहां अच्छा खासा बजट है और बेहद ही सुनियोजित खेल सिस्टम है। ध्यान रहे मात्र कुछ दशकों में ही चीन खेल की महाशक्ति बना है।
देशी खेल तो हमारे देश और समाज में पुरातन काल से हैं। पहले तो खेलों को राजदरबारों का आश्रय ओर प्रोत्साहन मिलता था। गुरूकुल आश्रमों में खेलों की प्रतियोगिताएं होती थीं।
वर्तमान मे साधारणतः राज्यों का खेल बजट 200 से 300 करोड़ रूपये होता है और केन्द्र सरकार का 1500 करोड़ रूपये का। राज्य और केन्द्र सरकार का खेल के सन्दर्भ में समग्र समान सोच होने की आवश्यकता है। राज्यों में और केन्द्रीय खेल बजट महज एक खानापूर्ति होती दिखती है।
हमें दीर्घकालिक क्रीड़ानीति बनाने की आवश्यकता है। सरकारी बजट में खेलों के लिए पर्याप्त राशि उपलब्ध कराने की व्यवस्था करनी होगी। बड़े पैमाने पर खेल अकादमियों की स्थापना कर खिलाड़ियों के आहार, निवास, उदर निर्वाह की व्यवस्था कर उन्हें लगातार खेल के लिए अभ्यास करने के लिए प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
भारत की सबसे प्रमुख समस्या है कि ओलंपिक के दौरान के उत्साह को छोड़कर पूरे वर्ष क्रिकेटरों के बेहद छोटे से छोटे समूह को भी तवज्जो दी जाती है। क्रिकेट मार्केट फ्रेंडली बन गया है, जो ढेर सारे प्रायोजकों को आकर्षित करता है। शायद यही वजह है कि अभिभावक अपने बच्चों को क्रिकेट खेलने के लिए प्रेरित करते हैं। उन्हें उम्मीद रहती है कि यदि एक दो सीजन इंडियन प्रीमियर लीग में ही खेल लिया तो खेलने की उम्र बीत जाने के बाद भी क्रिकेट में करियर बना लेंगे। लेकिन ऐसा अन्य खेलों के साथ नहीं है।
अन्य खेलों की तुलना में हमारे यहां क्रिकेट का ज्वर जनमानस में सर्वाधिक है। अन्य खेलों की तुलना हम क्रिकेट को ही अधिक वरीयता देते हैं।
धीरे धीरे राजनैतिक हस्तेक्षप कम होगा और खेल खिलाड़ियों के अच्छे दिन आयेंगे। राजकीय हस्तक्षेप के साथ साथ भ्रष्टाचार पर लगाम कसनी चाहिए, खिलाड़ियों को अच्छी सुविधायें उपलब्ध होनी चाहिए। खिलाड़ियों की शारीरिक, मानसिक क्षमता बढ़े इस पर ध्यान ध्यान दिया जायेगा तो खिलाड़ी खेल पर ध्यान केन्द्रित कर पायेगा तो ही उसे यश प्राप्त होगा। लेकिन यह कैसे होगा यही यक्ष प्रश्न है।
हमारे यहाँ जो टैलेंट है वह खेल में परिलक्षित कम होता है। सभी की दिशा मात्र डाॅक्टर, इंजीनियर बनने के तरह खेल की ओर भी जाय, ऐसा वातावरण विकसित करना होगा। अपने यहाँ सामान्य तबके में रहने वाले खिलाड़ियों को मिलने वाले स्वस्थ पोषक आहार की स्थिति भी दयनीय ही है।
हमारे यहां शहरी मध्यम वर्ग के पालक की अधिकतर यही मानसिकता रखते हैं कि अपने बच्चों के लिए जाॅब सिक्योरिटी होनी चाहिए।
भारत को ओलंपिक स्पोर्ट्स नेशन के रूप में आगे बढ़ाने की ईमानदार हसरत पैदा हो। ज्यादातर कार्पोरेट घराने अब भी क्रिकेट के ग्लैमर के पीछे भागते हैं। हमारे दस धनी कार्पोरेट घराने क्यों नहीं ऐसे ओलंपिक खेलों को अपनाते जिनमें मेडल जीतने की संभावनायें हों? सिर्फ हाई – प्रोफाइल लीग आयोजित करके नहीं बल्कि बीस साल की अवधि तक जमीनी स्तर पर इन खेलों को बढ़ावा देकर इन खेलों को अपनाना होगा।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के ओलंपिक में प्रदर्शन में वृद्धि हेतु एक उच्च स्तरीय टास्क फोर्स गठित करने की घोषणा की है। उस कमेटी के सुझाव आने के पश्चात सरकारी खेल संगठन, खेल प्रेमी इस दिशा में बेहतर कार्य करेंगे तो निश्चित ही हम खेल महाशक्ति बनने की दिशा में अग्रसर होंगे।
अब 2020 में टोक्यो-जापान में ओलंपिक होगा, क्या हम अधिक मेडल प्राप्त करने के लिए अभी से कमर कसेंगे ??