कालेधन के अपमार्जन के लिए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने से पूर्व ही अपने संकल्प स्पष्ट कर दिए थे। देश की जनता ने प्रधानमन्त्री के विकास और कालेधन के लक्ष्य को अपना लक्ष्य माना था और अभूतपूर्व बहुमत से भाजपा को सत्तासीन किया था। कालेधन से मुक्ति की बातें तो लगभग सभी दलों के नेता करते थे क्योंकि यह सर्वमान्य सामाजिक बुराई थी जिससे अनेक प्रकार की सामाजिक विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं, किन्तु इसके क्रियान्वयन का साहस किसी भी दल अथवा व्यक्ति में नहीं था। इसका कारण यह भी था कि अनेक नेता चुनावों के लिए इसी प्रकार के धन का उपयोग करते थे और ऐसे में उनमें नैतिक साहस का अभाव भी था। हमारे प्रधानमन्त्री ने वह साहस दिखाया और उसका परिणाम भी समय के साथ-साथ स्पष्ट होने लगा है। 5 लाख करोड़ रुपये से अधिक का धन बैंकों में आ चुका है जो अर्थव्यवस्था को पर्याप्त सम्बल देने में समर्थ है।
अब विपक्षी दलों के लिए इसमें क्या समस्या है यह कहीं से भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। नोटबंदी का विरोध करने की सम्भावनाएं किन-किन परिस्थितियों में हो सकती है इस पर विचार करते हैं। नोटबन्दी का विरोध वे लोग कर सकते हैं जिनके पास आय से अधिक अघोषित नकदी मुद्रा हो, गलत तरीके से नकदी का संग्रह किया गया हो, आयकर से बचने के लिए नकद राशि संग्रहीत की गयी हो, अघोषित परिसम्पत्तियों में निवेश के लिए नकदी का संग्रह हो, देशविरोधी कार्यों के लिए धनराशि संग्रहीत की गयी हो जिसका प्रकाशन बैंकों के माध्यम से सम्भव न हो और चुनावों में मतों की खरीद-फरोख्त के लिए गैर-कानूनी ढंग से एकत्र किया गया हो। ये सम्भावनाएं नोटबन्दी के विरोध का कारण हो सकती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या देश में जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले इन्हीं सम्भावनाओं का विरोध कर रहे हैं? अथवा यह भी सम्भव है कि वे जनता की कठिनाइयों के विषय में चिन्तित हों इस कारण विरोध कर रहे हों। किन्तु यह समस्या भी विरोध का कारण इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि कतारों में खड़ी देश की जनता परेशान तो है किन्तु इस अभियान के पक्ष में दिखाई दे रही है। जनता व्यवस्था पर कभी-कभी प्रश्न उठा रही है किन्तु इस साहसिक कदम की प्रशंसा भी कर रही है। तो फिर नेताओं के इस विरोध का वास्तविक कारण क्या है?
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमन्त्री के इस साहसिक कदम के कारण विपक्ष के नेता देश में शुचिता की लड़ाई में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। लोकसभा चुनावों में जिस पराजय के दंश से वे पीड़ित हैं उससे वे उबर नहीं पा रहे हैं। भाजपा की निरन्तर बढ़ती लोकप्रियता से विपक्ष के लगभग सभी दल अपने को हाशिए पर अनुभव कर रहे हैं। उन्हें चिन्ता इस बात की है प्रधानमन्त्री ने अपने इस अभियान का हिस्सा उन्हें क्यों नहीं बनाया जिसके कारण जनता में उनकी छवि और भी धूमिल हो गयी है। उन्हें ज्ञात है कि देश की जनता गत सत्तर वर्षों से कतारों में ही उलझी रही है, राशन की कतार, चीनी की कतार, टिकट की कतार, अनुदान प्राप्त करने के लिए कतार, बिल जमा कराने के लिए कतार, तो इस प्रकार जनता को इसकी आदत पड़ चुकी है अतः जनता अन्तिम बार कतार में समय देने से परहेज नहीं कर रही है।
वास्तव में विपक्ष अपनी वास्तविक परेशानी प्रकट नहीं कर पा रहा है। वह आपस में ही दिग्भ्रमित है। उनका एक नेता कहता है कि यह निर्णय वापस लेना चाहिए, एक नेता कह रहा है कि थोड़ा सा समय और देना चाहिए, कोई नेता कहता है कि तैयारी नहीं थी, कोई नेता कहता है कि आर्थिक आपातकाल आ गया है, कोई नेता कहता है कि निजी अस्पतालों में भी पुरानी मुद्रा लागू करनी चाहिए। कुल मिलाकर विपक्षी दल यह स्वयं तय नहीं कर पा रहा है कि नोटबन्दी की परेशानी है या व्यवस्था की। विपक्ष प्रारम्भ से ही सरकार के प्रत्येक कार्य की आलोचना का मन बना चुका है। और यह विरोध किसी विशेष दल की विचाराधारा भी नहीं दिखाई देती क्योंकि बिहार के मुख्यमन्त्री इसे साहसिक निर्णय बता रहे हैं तो उनके ही दल के कुछ नेता इसका विरोध कर रहे हैं। समग्र दृष्टि से देखा जाये तो जनधन योजना, अटल पेंशन योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना और अनेकानेक जनहित की योजनाओं से लेकर जीएसटी और सर्जिकल स्ट्राइक तक के अभियान की निन्दा विपक्ष द्वारा की गयी किन्तु जनता द्वारा सराही गयी। यही कारण है कि विपक्ष लगातार हाशिए पर पहुंचता जा रहा है। इतना ही नहीं, जनता द्वारा उठायी जा रही परेशानी से अभिभूत होकर प्रधानमन्त्री जब गोवा में भावुक हो उठे तो जनता भी द्रवित हो उठी और उनके इस निर्णय के साथ दृढ़ संकल्प लेकर उठ खड़ी हुई किन्तु संवेदनाहीन विपक्ष इसमें भी राजनीति करने से बाज नहीं आया। यह वही विपक्ष है कि जिसने सर्जिकल स्ट्राइक पर भी देश की सेना और सरकार को दोषी ठहराने का प्रयास किया था।
अब विपक्ष जीएसटी के बाद एक बार फिर संसद में गतिरोध उत्पन्न कर रहा है। विपक्ष इस बात को लेकर अड़ा है कि प्रधानमन्त्री संसद में बयान देने के लिए उपस्थित हों। इस हठ को क्या इस रूप में न लिया जाए कि विपक्ष को अपने सवालों के जवाब नहीं बल्कि प्रधानमन्त्री की उपस्थिति चाहिए। प्रधानमन्त्री की एक मन्त्रिपरिषद होती है जिसमें अनेक मन्त्रालय होते हैं। प्रत्येक मन्त्रालय का एक मन्त्री होता। जिस विभाग से सम्बन्धित प्रश्न संसद में पूछे जाते हैं उस विभाग का मन्त्री उसका उत्तर देने के लिए उत्तरदायी होता है। वित्त मन्त्री सहित भाजपा का प्रत्येक सांसद और मन्त्री संसद में चर्चा के लिए तैयार है किन्तु विपक्ष संसद न चलने देने के बहाने ढूंढ रहा है। किन्तु देश की जनता जीएसटी के मुद्दे पर विपक्ष का व्यवहार देख चुकी है अतः विपक्ष को एक बार पुनः शर्मसार होकर स्वयं शान्त होना पड़ेगा और अपने अवसान को साकार होते देखना होगा।