श्रीदेवी की मौत के बाद जिस तरह से मीडिया में इसकी कवरेज हो रही है वो एक बार फिर से मीडिया संस्थानों की कमअक्ली और संवेदनहीनता को उजागर करता है। उनकी फिल्मों के नाम को लेकर मौत की खबर में घटिया तुकबंदियां बिठाई जा रही है। फिर चाहे वो तुकबंदी कितनी भी रचनात्मक क्यों न हो वो खबर की गंभीरता कम करती है। किसी की मौत आपके लिए अपनी रचनात्मकता दिखाने का मौका या मंच नहीं होनी चाहिए। मौत की खबर को सीधे सरल तरीके से बताना चाहिए। सदमा दे कर चली गई चांदनी् जैसी बचकानी तुकबंदियां बिठाकर आप दर्शकों का या पाठकों का ये बताना चाहते हैं कि देखो-देखो मैंने कैसे उसकी फिल्मों के दो नाम जोड़कर पूरे मूड को समेट लिया। नहीं भाई, ऐसे मौके पर इस तरह की तुकबंदी निहायत ही ओछापन है। एक तरह चैनल की रिपोर्ट दर्शकों को रूलाने के लिए कह रही है कि श्रीदेवी की अभी उम्र ही क्या थी, उन्होंने देखा ही क्या था, उनकी बेटियाों से मां का सहारा छिन गया और ये कहने के अगले ही सेकेंड में आप उनकी उनकी फिल्मों के गाने चलाने लगते हो।
क्या किसी की मौत की खबर के बीच मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां चलाना इसलिए सही हो जाता है क्योंकि वो उनकी फिल्म का गाना था? क्या श्रीदेवी के घरवाले उन्हें याद करते वक्त इन गानों के बारे में सोच रहे होंगे? या उनसे जुड़ा कोई भी शख्स ऐसे मौके पर गाना सुनना चाहेगा? और अगर वो (परिवारवाले) नहीं सुनना चाहेंगे जो सबसे ज्यादा दुखी हैं, तो आपने ये कैसे मान लिया कि आम लोगों के लिए उनकी फिल्मों के गाने सुनना बेहद जरूरी है।हकीकत तो ये है कि आपको श्रीदेवी की मौत से कोई सरोकार है ही नहीं। उनकी मौत आपके लिए उनसे जुड़ी दस कहानियां, उनके दस बेहतरीन गानें सुनाने का एक मौका भर है। क्योंकि जब आप ये कहते हैं कि उन्होंने अभी देखा ही क्या था, तो आप अफसोस व्यक्त नहीं करते बल्कि ऐसी सस्ती पंक्तियां लिखकर लोगों को भावुक करना चाहते हैं। और अगर मौत को दुखद मानते ही हैं (जो कि थी भी ) तो दुख की इस घड़ी में बार-बार गाने क्यूं सुना रहे हैं?
आप उनकी मौत की खबर दिखाइए, उनके साथ काम कीजिए कलाकारों से बात कीजिए, उनकी फिल्मों के दृश्य भी दिखाइए मगर हर थोड़ी देर में उनसे जुड़े गाने सुनाने का क्या औचित्य है? उनकी फिल्मों के टाइटल जोड़कर घटिया तुकबंदियां बिठाने का क्या मतलब है? जब हम किसी दंगे में किसी की मौत पर बयानबाजी करने पर नेताओँ को कोसते हैं कि उन्हें मौत से कोई सरोकार नहीं वो सिर्फ अपनी राजनीति चमका रहे हैं, तो ऐसी मौतों के वक्त संवेदनहीनता दिखाकर मीडिया भी तो वही करता है।नेता मौत पर बयानबाजी करके राजनीति चमकाते हैं, तो आप किसी की मौत पर चित्रहार चलाकर अपना धंधा चला रहे हैं। किसी हादसे में किसी के बच्चे की मौत हो जाती है, किसी शहीद जवान की बीवी बिलख रही होती है और आप रोते परिवारवालों के आगे माइक करके पूछने लगते हैं कि कैसा लग रहा है?
क्या किसी के दुख की निजता की इसलिए परवाह न की जाए क्योंकि वो आम आदमी है? क्या हमें ये समझ नहीं है कि इतने गहरे दुख के वक्त इंसान अकेला रहना चाहता है। जो इंसान रो-रोकर पागल हो रहा है वो आपसे भला कैसे बात करेगा? क्या उसकी इस स्थिति का सम्मान करते हुए उसे अकेला नहीं छोड़ देना चाहिए। क्या हमारे लिए उसकी श्बाइटश् उसकी दुख से ज्यादा बड़ी है?जब टीवी शुरूआती तौर पर ऐसी गलतियां करता था, तो दलील दी जाती थी कि ये माध्यम अभी बाल्य अवस्था में है, इसे अपरिपक्क होने का वक्त दीजिए मगर अब तो ये बालिग भी हो गया और इसे चलाने वाले संपादक अधेड़ हो गए पर क्या किसी में इतनी भावनात्मक समझदारी नहीं आई। दिक्कत ये है कि जब हमें किसी गैरजरूरी मुद्दे पर चार लोगों को बुलाकर भिड़वाना होता है, तो वहां भड़काने से काम चल जाता है? किसी गैरजरूरी मूर्खता को असल खबर बताकर सनसनी पैदा करना भी मुश्किल नहीं है मगर जहां मौत की बात आती है वहां आप निहत्थे हो जाते हैं। उस स्थिति से निपटने की बौधिक तैयारी आपकी होती नहीं और इन खबरों के ट्रीटमेंट में आप उसी पैंतरेबाजी से काम लेतै हैं जो पत्रकारिता में आने के बाद आपने सीखी थी और फिर वही होता है जो अब हो रहा है।
श्रीदेवी दक्षिण भारत की सफल अभिनेत्री थी और हिन्दी फिल्मों में भी अच्छा नाम कमाया लेकिन तिरंगा में लपेटकर ले जाना किसी को अच्छा नही लगा। कारण साफ था फिल्मकारों का कोई चरित्र नही होता और तिरंगा देश पर मर मिटने वालों केा लपेटा जाता है शराब पीकर बाथटब में मरने वाले को नही। सही मायने में वीरता के लिये मिलने वाले चक्र के लिये तिरंगे केा लपेटे जाने की व्यवस्था होनी चाहिये।
सत्य है भाई साहब आज कल बाजारवाद इतना हावी हो गया है किसी को किसी के दुख की कोई नही पड़ी सिर्फ हर चीज में मसाला ढूंढते है ।