न्याय व्यवस्था में न्यायाधीशों की संख्या

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के 31 स्थान हैं जबकि इस वक्त केवल 27 न्यायाधीश कार्यरत हैं। देश के 24 उच्च न्यायालयों में 1079 न्यायाधीशों के पद हैं जिनमें लगभग 400 पद रिक्त हैं। जिला स्तर तक की अदालतों में न्यायाधीशों के 20 हजार से कुछ अधिक पद हैं जिनमें से इस समय लगभग 5 हजार पद रिक्त हैं।
अमेरिका जैसे विकसित देशों में लगभग 10 हजार लोगों पर एक न्यायाधीश काम करता है जबकि हमारे देश में लगभग 80 हजार लोगों पर एक न्याधीश निर्धारित है।

मुकद्दमों का शीघ्र निपटारा
मुकद्दमों के शीघ्र निपटारे के लिए वर्तमान व्यवस्था से भी कई हल ढूंढे जा सकते हैं। जिला अदालतों तथा उच्च न्यायालयों में एक शिफ्ट के स्थान पर दो शिफ्ट में कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है। सांध्य अदालतों की शुरूवात कुछ राज्यों में की गई है। इसे यदि भारत में लागू किया जाये तो मुकद्दमों के निपटारे में बहुत बड़ी सुविधा मिल सकती है।

बजट
हमारे देश में वर्ष 2016 के बजट में न्याय व्यवस्था के लिए 0.2 प्रतिशत राशि आवंटित की गयी थी। निःसंदेह 2017 के बजट में यह राशि 0.4 प्रतिशत कर दी गयी परन्तु अमेरिका जैसे विकसित देशों में न्यायपालिका के लिए 4 प्रतिशत से भी अधिक राशि आवंटित की जाती है।
सत्य से होंगे देष के सभी मुकद्दमें समाप्त
यदि भारत की सभी अदालतें अन्तिम निर्णय देते समय सत्य पक्ष को हर सम्भव सहायता देने का प्रयास करें और साथ ही झूठ बालने वाले पक्ष पर भारी जुर्माने की प्रथा को अपना लें तो हो सकता है भारत की अदालतों में झूठे पक्षकारों के मन मस्तिष्क पर यह प्रेरित संदेश प्रभाव जमाने लगे कि भारत की अदालतों में झूठ और बेईमानी का सहारा लेना अन्ततः बहुत भारी पडे़गा।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्रतीक स्तम्भ पर लिखा हुआ वाक्य सत्य सिद्ध होने में देर नहीं लगेगी जिसके अनुसार ’यतो धर्मस्ततो जयः’ । अर्थात जहां धर्म होता है वहीं जय होती है। अदालती प्रक्रिया में सत्य ही धर्म का एकमात्र लक्षण है।
न्याय भावुक नहीं होता। भावुकता तर्कनिष्ठ और वैधानिक नहीं होती। इसलिए भारत में न्यायाधीशों को न्यायमूर्ति कहा जाता है। मूर्तियां भी संवेदनशील और भावुक नहीं होती।

अपराध मुक्त राजनीति के लिए विशेष अदालतें
न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और नवीन सिन्ध की खंडपीठ ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के क्रम में विशेष अदालतों के गठन का निर्देश केन्द्र सरकार को दिया था। यह निर्देश देते हुए न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि त्वरित न्यायालय कब तक बनाये जायेंगे और इन पर धन कितना खर्च होगा। न्यायालय ने यह जानना चाहा था कि 2014 के आम चुनाव के दौरान विभिन्न उम्मीद्वारों द्वारा दिए हलफनामों में जिन विचाराधीन अपराधों का जिक्र किया गया था, उनमें कितने मामलों का निपटारा हो पाया है? साथ ही यह भी पूछा कि इनमें से कितनों पर नए मामले दर्ज हुए हैं? तीन साल पहले के आंकड़ों के अनुसार 541 सांसदों ओर विधायकों के खिलाफ संगीन अपरोधों में 13500 मामले दर्ज हैं। वर्तमान संसद में 541 सांसदों में से 180 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले विचाराधीन हैं।
केन्द्र सरकार ने खंडपीठ को जानकारी दी है कि दोषी ठहराये गए जनप्रतिनिधियों को आजीवन चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करने संबंधी चुनाव आयोग और विधि आयोग की सिफारिशों पर भी विचार किया जा रहा है। वर्तमान कानूनों के अनुसार सजा पाए नेता छह साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह मुद्दा लगातार उछलता रहा है। निचली अदालतों से राजनेताओं को सजा मिल जाती है तो वे ऊपरी अदालतों में अपील के जरिए स्थगन आदेश मिल जाने की सहूलियत से बचे रहते हैं और उन का चुनाव लडने और चुने जाने का सिलसिला बना रहता है।
हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर अपराधी प्रवृत्ति के राजनीतिज्ञ प्रभावी होते चले जा रहे हैं। इसका एक प्रमुख कारण न्यायिक प्रक्रिया में सुस्ती और टालने की प्रवृत्ति भी है।

नेताओं के लिए अलग अदालतें क्यों?
पर सवाल यह है कि नेताओं के लिए अलग सुनवाई की व्यवस्था बनाने के बजाय क्या इस पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए कि हर आम आदमी के मामले की समयबद्ध सुनवाई हो और फैसला आये? अगर ऐसा हो जाए तो नेताओं का मामला भी अपने आप सुलझ जायेगा।
फिर सवाल यह भी है कि क्या सरकारी कर्मचारियों , अधिकारियों के मामले की जल्दी सुनवाई नहीं होनी चाहिए? क्या अरबों खरबों की गड़बड़ियों से जुड़े कारोबारियों के मामले की सुनवाई भी जल्दी नहीं होनी चाहिए? या क्या जो लोग बिना सुनवाई के बरसों से जेल में बंद रह जाते हैं उनकी सुनवाई जल्द नहीं होनी चाहिए?

जनहित याचिकाओं का कारोबार
कुछ जनहित याचिकायें जैसे कोहिनूर हीरे को भारत लाने, सिंधु जल समझौते , संता बंता पर चुटकुले आदि तथा पिछले साल सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी, आम बजट तय वक्त के पहले पेश करने से रोकने संबंधी , सहारा विट्ठल डायरी आदि देखने से लगता है कि मनोहरलाल शर्मा , प्रशांत भूषण आदि इनकी दलाली करते हैं।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि तमाम बड़े और ऐतिहासिक महत्व के फैसले जनहित याचिकाओं की ही देन है। जनहित याचिकाओं ने न्यायपालिका और विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट के प्रति आम लोगों के भरोसे को बढ़ाया है, लेकिन पिछले कुछ समय से फालतू की जनहित याचिकायें सुप्रीम कोर्ट का कीमती वक्त बर्बाद करने का काम कर रही हैं। ऐसे कुछ संगठन हैं जो जनहित याचिकाओं की दूकान में तब्दील हो चुके हैं। कुछ लोग अखबार की सुर्खियों में आने हेतु जनहित याचिकाएं दायर करते हैं।
जैसे सूचना का अधिकार कानून के बाद कुछ लोगों ने फालतू की आरटीआई अर्जी दाखिल करने का धंधा बना लिया है वैसे ही कुछ लोग जनहित याचिकाओं का कारोबार चलाते दिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट देश की हर समस्या को सुलझा नहीं सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने गंगा में प्रदूषण का संज्ञान लिया लेकिन गंगा जस की तस है। उसने पुलिस सुधार का काम हाथ में लिया लेकिन पुलिस अब भी वैसी ही है। जब शासन प्रशासन के स्तर पर किसी मसले की अनदेखी होती है तो पीड़ित लोगों को अदालत का रास्ता ही एकमात्र रास्ता नजर आता है।

Leave a Reply