पिछले दिनों केरल उच्च न्यायालय की हीरक जयंती पर आयोजित एक समारोह में राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की ओर से भारतीय न्याय प्रणाली के संबंध में दो महत्वपूर्ण बातों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया। सबसे पहले राष्ट्रपति ने न्यायालय द्वारा दिये जाने वाले निर्णयों की भाषा के संबंध में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा कि . ’’ निर्णयों की भाषा सरल होनी चाहिए जिससे की वह आसानी से वादियों की समझ में आ सके। ’’ इसलिए उन्होंने निर्णय की अनुवादित प्रतियां न्यायालय द्वारा जारी करने की व्यवस्था किए जाने का सुझाव दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि अदालतों का फैसला वादियों की अपनी भाषा में होना चाहिए।
आखिर इसका क्या मतलब कि लोगों को यह समझ ही नहीं आए कि जिस अदालत से वह न्याय मांगने गए थे उसका फैसला कहता क्या है? यह ठीक नहीं कि न्याय मांगने वालों को अपने पक्ष – विपक्ष में आये फैसलों का मतलब किसी और से समझना पड़े।
पहले पंजाब में राजस्व विभाग द्वारा भूमि दस्तावेजों की भाषा उर्दू थी इस मुगलकालीन प्रणाली जो अंग्रजी हुकूमत में भी जारी रही , को धीरे -धीरे बदला गया। अब उत्तर भारत के कई राज्यों में भूमि पंजीकरण दस्तावेज हिंदी भाषा एवं देवनागरी लिपि में होते हैं।
भारत में लगभग 54 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दी भाषा का प्रयोग करती है। इसके अतिरिक्त भारत के संविधान में 23 भाषाओं को मान्यता प्रदान की गयी है। लगभग 10 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी बोलते या समझते हैं। अंग्रजी को भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं में स्थान भी नहीं मिला। इसका सीधा कारण था कि अंग्रेजी एक विदेशी भाषा थी जबकि भारतीय संविधान में केवल भारतीय भाषओं को मान्यता दी गयी थी। इस प्रकार लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या अंग्रेजी प्रयोग में सक्षम नहीं है।
भारत में न्याय व्यवस्था कि प्रक्रिया अंग्रजी में चलने के कारण ही जनता और न्याय के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। यह 90 प्रतिशत जनता अंग्रजी न समझने के कारण न्याय तक अपनी सीधी पहंुच बनाने में असहाय रहती है और पूरी तरह से वकीलों पर निर्भर हो जाती है। पक्षकार की भाषा ठीक ढंग से वकीलों के पेश न करने के कारण अनेक बार गलत निर्णय के कारण अदालतों पर एक के बाद एक अपील के रूप् में बोझ बढ़ता ही चला जाता है।
भारत के बहुतायत राज्यों में जिला स्तर तक की अदालतों में राज्य की स्थानीय भाषाओं का प्रयोग होता हुआ दिखाई देता है।
कानून की लड़ाई के लिए तो जनता को वकीलों पर निर्भर होना ही पड़ता है, परन्तु निर्णय को पढ़ने और समझने के लिए भी उन्हें वकीलों या किसी अन्य अंग्रेजी पढ़े लिखे व्यक्ति पर निर्भर होना पड़े तो इससे उनके समय और लागत पर बोझ ही पड़ेगा।
सर जी आपके विचार बहुत ही सुन्दर सराहनीय है , आम जनमानस की भावनाओं का आदर कर आपने आम जनमानस
को एक सुखद अनुभव दिया l देश आपके इस निर्णय का हमेशा
हमेशा कृतार्थ रहेगा l
सर जी प्रणाम l