कहानी है अहल्या बाई होल्कर और श्रीकाशी विश्वनाथ की…..

इसी कहानी में भारत सरकार और श्रीकाशी विश्वनाथ धाम के विरोध का रहस्य छिपा है।विरोध केवल मोदी का ही नहीं हो रहा है और विरोध पहली बार ही हो रहा है ऐसा भी नहीं है।विरोध तो श्रीमंत मल्हार राव होल्कर और मातोश्री अहल्याबाई होल्कर का भी हुआ था। बुरा लग सकता है लेकिन आज लिखना आवश्यक है: 1735 में बाजीराव पेशवा की माँ राधाबाई तीर्थयात्रा पर काशी आईं।उनके लौटने के पश्चात ‘काशी के कलंक’ को मिटा देने के संकल्प के साथ पेशवा बाज़ीराव के सेनापति मल्हार राव होल्कर 1742 में गंगा के मैदानों में आगे बढ़ रहे थे। उस समय पेशवाओं की विजय पताका चहुँओर लहरा रही थी।काशी विश्वनाथ के मन्दिर की मुक्ति सुनिश्चित थी। 27 जून 1742 को मल्हार राव होल्कर जौनपुर तक आ चुके थे। उस समय काशी के कुछ तथाकथित प्रतिष्ठित लोग उनके पास पहुँच गए और कहा कि “आप तो मस्जिद को तोड़ देंगे लेकिन आप के चले जाने के बाद मुसलमानों से हमारी रक्षा कौन करेगा।” इस तरह बाबा की मुक्ति के बजाय स्वयं की सुरक्षा को ऊपर रखने वाले काशी के कुछ धूर्तों ने उन्हें वापस लौटा दिया। बाबा विश्वनाथ के मन्दिर की पुनर्स्थापना होती होती रह गई।
मल्हार राव होल्कर लौट तो गए लेकिन उनके मन में कसक बनी रही। वही कसक और पीड़ा श्रीमन्त मल्हार राव होल्कर से उनकी पुत्रवधू अहिल्याबाई होल्कर को स्थानान्तरित हुई।अहल्याबाई के लिए उनके ससुर मल्हार राव होल्कर ही प्रेरणा थे क्योंकि अहल्याबाई का जन्म किसी राजघराने में नहीं हुआ था। उनके पिता एक गाँव के सरपंच मात्र थे। एक दिन कुमारिका अहल्या मंदिर में सेवा कर रही थी। भजन गाती और गरीबों को भोजन कराती अहल्याबाई के उच्च कोटि के संस्कारों को मालवा के अधिपति मल्हारराव होल्कर ने देखा। उसी समय उन्होंने तय कर लिया कि अहिल्या ही उनके बेटे खाण्डेराव की पत्नी बनेंगी। वर्ष 1733 में अहल्याबाई का विवाह खाण्डेराव होल्कर से हो गया। अहल्याबाई की आयु 8 वर्ष थी। खाण्डेराव अहल्याबाई से 2 साल बड़े थे।सन 1754 में एक युद्ध के दौरान खाण्डेराव वीरगति को प्राप्त हो गए। अहल्याबाई के जीवन में अंधेरा छा गया। अहल्याबाई सती हो जाना चाहती थी किन्तु मल्हार राव ने अहल्याबाई को न केवल सती होने से रोका बल्कि मानसिक तौर पर उन्हें मजबूत भी किया। शासन सञ्चालन के सूत्रों का प्रशिक्षण देकर मालवा का शासन सम्भालने के लिए तैयार किया। 1766 में मल्हार राव के मृत्योपरांत अहल्याबाई होल्कर ने मालवा का शासन अपने हाथों में ले लिया।
काशी विश्वनाथ का मन्दिर महारानी अहल्याबाई होल्कर की अमूल्य कीर्ति है। काशी के लिए अहल्याबाई होल्कर का क्या योगदान है। इसे इतिहास का अवलोकन किए बिना नहीं समझा जा सकता।
आनन्दवन काशी को पहला आघात 1194 में लगा था। जब मोहम्मद गोरी के सिपहसलार क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने काशी विश्वनाथ समेत यहाँ के प्रमुख मंदिरों को तोड़ दिया। बाद के कालखण्डों में हुसैन शाह सिरकी (1447-1458) और सिकंदर लोधी (1489-1517) ने काशी विश्वनाथ और काशी के अन्य प्रमुख मंदिरों को तोड़ा। बार-बार काशी पर इस्लामिक हमलावर आघात करते रहे लेकिन शिवनगरी काशी पुनः पुनः हिन्दुत्व के अमृततत्व से सँवरती रही।
अकबर के कालखण्ड में काशी के जगतप्रसिद्ध धर्मगुरु पण्डित नारायण भट्ट की प्रेरणा से राजा टोडरमल ने 1585 में पुनः काशी विश्वनाथ के भव्य मंदिर का निर्माण कराया। हालाँकि इसमें अकबर का कोई योगदान नहीं था। यह बात इसलिए लिखनी पड़ रही है कि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने अपने एक लेख में लिखा था और अभी फिर से लिखा है कि विश्वनाथ मंदिर के लिए अकबर ने धन दिया था।यह सच नहीं है। इसी मन्दिर को औरंगज़ेब के 18 अप्रेल 1669 के फ़रमान से तोड़ दिया गया। मन्दिर के ध्वस्त अवशेषों से ही उसी स्थान पर वर्तमान मस्जिद खड़ी कर दी गयी। पीछे की तरफ मन्दिर का कुछ हिस्सा छोड़ दिया गया ताकि इसे देख कर ग्लानि से हिन्दु रोते रहें। काशी विश्वनाथ का मन्दिर ध्वस्त कर दिया गया था लेकिन 1669 से ही भग्नावशेष एवं स्थान की पूजा चलती रही। मुक्ति के विभिन्न प्रयास भी चलते रहे।
मदिर का पुनर्निर्माण और भगवान की प्राण-प्रतिष्ठा करना समस्त राजा महाराजाओं और संतों के सामने प्रश्नचिह्न बना हुआ था। काशी के तीर्थपुरोहितों की बहियों से ऐसा ज्ञात होता है कि 1676 ई. में रीवा नरेश महाराजा भावसिंह तथा बीकानेर के राजकुमार सुजानसिंह काशी आए थे। इन दोनों राजाओं ने मंदिर निर्माण की पहल तो की लेकिन सफल नहीं हो पाये। उन्होंने विश्वेश्वर के निकट ही शिवलिंगों को स्थापित अवश्य किया।
इसी क्रम में मराठों के मंत्री नाना फड़नवीस के प्रयास भी असफल रहे। 1750 में जयपुर के महाराजा सवाई माधो सिंह ने परिसर की पूरी ज़मीन ख़रीद कर विश्वनाथ मंदिर के निर्माण की योजना बनायी जो कि परवान नहीं चढ़ सकी। 7 अगस्त 1770 को महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था।यह योजना भी पूरी नहीं हो पायी।इतने असफल प्रयासों के पश्चात अहल्याबाई होलकर को सफलता प्राप्त हुई। अहल्याबाई ने वह करके दिखा दिया जिसे समस्त हिन्दू राजा 111 वर्षों में नहीं कर सके थे। अहल्याबाई के प्रयासों से 1777 से प्रारंभ होकर 1781 ई. में वर्तमान मंदिर का निर्माण मूल स्थान से दक्षिण की दिशा में थोड़ा हटकर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को पूर्ण हुआ।
महारानी अहल्याबाई ने काशी विश्वनाथ मंदिर की स्थापना के साथ-साथ जो भी धार्मिक स्थल भग्नावस्था में थे, उन सभी को शास्त्रीय मर्यादाओं के साथ पुर्नस्थापित करवाया। वहाँ पूजा-पाठ नित्य होता रहे, इसकी व्यवस्था भी राजकीय कोष से करवायी। किन्तु काशी ने उस समय भी महारानी का साथ नहीं दिया था। शिवलिंग की प्रतिष्ठा के लिए महारानी को माहेश्वर से पण्डितों बुलवाना पड़ा था। मन्दिर के लिए नित्य पुजारी को लेकर भी समस्या आयी। काशी का कोई ब्राह्मण पुजारी के पद पर कार्य करने को तैयार नहीं था। इसलिए काशी विश्वनाथ का पहला पुजारी तारापुर के एक भूमिहार ब्राह्मण को बनाया गया। ये प्रमाण आज भी इन्दौर के अभिलेखागार में सुरक्षित हैं। मल्हार राव को मार्ग से भटकाने वाले और अहल्याबाई का साथ न देने वालों धूर्तों के वंशज आज भी काशी में ही हैं। यही लोग वर्तमान में श्रीकाशी विश्वनाथ धाम का विरोध कर रहे हैं।
294 वर्षों के भारत सरकार ने अहल्याबाईके अधूरे कार्यों को आगे बढ़ा कर उन्हें सच्ची श्रद्धाञ्जलि अर्पित की है। नए परिसर में मातोश्री की प्रतिमा स्थापित कर उनकी कीर्ति को सदैव के लिए अक्षय कर दिया है। तीन हज़ार वर्गफीट में सिमटा मन्दिर आज पाँच लाख वर्ग फ़ीट के भव्य परिसर में विस्तार ले चुका है। काशी की छाती पर खड़ा हुआ ‘कलंक’ एक कोने में सिमट चुका है। विश्व के नाथ को गलियों में सिमटा देख कर हृदय में ग्लानि लिए सदियों से रोता हिन्दू आज धाम के विस्तारीकरण से प्रफुल्लित है।गजवा-ए-हिंद का सपना देखने वाले मुग़लों के वंशजों को भी अब विश्वनाथ धाम के दरवाज़े से ही प्रवेश लेना होगा। सरकार अपना कार्य कर चुकी है। अब बचे हुए कार्य को पूरा करने की ज़िम्मेदारी हिन्दू समाज के कन्धों पर है।

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