कश्मीर की बात

19 जनवरी 1990 -सारे कश्मीरी पंडितों के घर के दरवाजों पर नोट लगा दिया जिसमें लिखा था – “या तो मुस्लिम बन जाओ या मरने के लिए तैयार हो जाओ या फिर कश्मीर छोड़कर भाग जाओ लेकिन.. अपनी औरतों को यहीं छोड़कर|

लखनऊ में विस्थापित जीवन जी रहे कश्मीरी पण्डित संजय बहादुर उस मंजर को याद करते हुए आज भी सिहर जाते हैं। वह कहते हैं कि “मस्जिदों के लाउडस्पीकर” लगातार तीन दिन तक यही आवाज दे रहे थे कि यहां क्या चलेगा, “निजाम-ए-मुस्तफा”, ‘आजादी का मतलब क्या “ला इलाहा इलल्लाह”, ‘कश्मीर में अगर रहना है, “अल्लाह-ओ-अकबर” कहना है।और ‘असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ “रोअस ते बतानेव सान” जिसका मतलब था कि हमें यहां अपना पाकिस्तान बनाना है, कश्मीरी पंडितों के बिना मगर कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ।

सदियों का भाईचारा कुछ ही समय में समाप्त हो गया जहाँ पंडितों से ही तालीम हासिल किए लोग उनकी ही महिलाओं की अस्मत लूटने को तैयार हो गए थे।सारे कश्मीर की मस्जिदों में एक टेप चलाया गया। जिसमें मुस्लिमों को कहा गया की वो हिन्दुओं को कश्मीर से निकाल बाहर करें। उसके बाद कश्मीरी मुस्लिम सड़कों पर उतर आये। उन्होंने कश्मीरी पंडितों के घरों को जला दिया, कश्मीर पंडित महिलाओ का बलात्कार करके, फिर उनकी हत्या करके उनके “नग्न शरीर को पेड़ पर लटका दिया गया”। कुछ महिलाओं को बलात्कार कर जिन्दा जला दिया गया और बाकियों को लोहे के गरम सलाखों से दाग-दाग कर मार दिया गया। कश्मीरी पंडित नर्स सरला भट्टजो श्रीनगर के सौर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में काम करती थी, का सामूहिक बलात्कार किया गया और फिर हाथों और लातों से पीट-पीट कर उसकी हत्या कर दी गयी।कुछ वर्षों से कुछ महीनों तक की उम्र के बच्चों को उनकी माँओं के सामने स्टील के तार से पेड़ों पर लटका फाँसी दे कर मार दिया गया।कश्मीरी काफिर महिलाएँ पहाड़ों की गहरी घाटियों और भागने का रास्ता न मिलने पर ऊंचे मकानों की छतों से कूद कूद कर जान देने लगी।

लेखक राहुल पंडिता उस समय 14 वर्ष के थे। बाहर माहौल ख़राब था। मस्जिदों से उनके ख़िलाफ़ नारे लग रहे थे। पीढ़ियों से उनके भाईचारे से रह रहे पड़ोसी ही कह रहे थे, ‘मुसलमान बनकर आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो या वादी छोड़कर भागो’।राहुल पंडिता के परिवार ने तीन महीने इस उम्मीद में काटे कि शायद माहौल सुधर जाए। राहुल आगे कहते हैं, “कुछ लड़के जिनके साथ हम बचपन से क्रिकेट खेला करते थे वही हमारे घर के बाहर पंडितों के ख़ाली घरों को आपस में बांटने की बातें कर रहे थे और हमारी लड़कियों के बारे में गंदी बातें कह रहे थे। ये बातें मेरे ज़हन में अब भी ताज़ा हैं।1989 में कश्मीर में जिहाद के लिए गठित जमात-ए-इस्लामी संगठन का नारा था- ‘हम सब एक, तुम भागो या मरो’। घाटी में कई कश्मीरी पंडितों की बस्तियों में सामूहिक बलात्कार और लड़कियों के अपहरण किए गए। हालात और बदतर हो गए थे।

कुल मिलाकर हजारों की संख्या में काफिर महिलाओं का बलात्कार किया गया.. पच्चास-पच्चास मुस्लिमों द्वारा..उनके पिताओं.. उनके भाइयों.. पतियों के सामने !आज आप जिस तरह दाँत निकालकर धरती के जन्नत कश्मीर घूमकर मजे लेने जाते हैं और वहाँ के लोगों को रोजगार देने जाते हैं। उसी कश्मीर की हसीन वादियों में आज भी सैकड़ों कश्मीरी हिन्दू बेटियों की बेबस कराहें गूंजती हैं, जिन्हें केवल इसलिए नोच-नोच कर खा लिया गया कि वे हिन्दू थीं।घर, बाजार, हाट, मैदान से लेकर उन खूबसूरत वादियों में न जाने कितनी जुल्मों की दास्तानें दफन हैं जो आज तक अनकही हैं। घाटी के खाली, जले मकान यह चीख-चीख के बताते हैं कि रातों-रात दुनिया जल जाने का मतलब कोई हमसे पूछे कि धूप-दीप और हवन से सुवासित होने वाले दीवारो-दर आज बकरीद के खून के छींटों से दगे पड़े हैं। झेलम और वितस्ता का बहता हुआ पानी उन रातों की वहशियत के गवाह हैं जिसने कभी न खत्म होने वाले दाग इंसानियत के दिल पर दिए।

लखनऊ में विस्थापित जीवन जी रहे कश्मीरी पंडित रविन्द्र कोत्रू के चेहरे पर अविश्वास की सैकड़ों लकीरें पीड़ा की शक्ल में उभरती हुईं बयान करती हैं कि यदि आतंक के उन दिनों में घाटी की मुस्लिम आबादी ने उनका साथ दिया होता जब उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा था, उनके साथ कत्लेआम हो रहा था तो किसी भी आतंकवादी में ये हिम्मत नहीं होती कि वह किसी कश्मीरी पंडित को चोट पहुंचाने की सोच पाता लेकिन तब उन्होंने हमारा साथ देने के बजाय कट्टरपंथियों को अपने कंधों पर बिठाया और उनके ही लश्कर में शामिल हो दसियों साल से “गंगा-जमुनी तहजीब” के नशे में डूबे हिन्दुओं को जी भर-भर लूटा !!अभी हाल में ही आपलोगों ने टीवी पर “अबू बकर अल बगदादी” के जेहादियों को काफिर “यजीदी महिलाओं” को रस्सियों से बाँधकर कौड़ियों के भाव बेचते देखा होगा।पाकिस्तान में बकरियों की तरह खुलेआम हिन्दू लड़कियों का अपहरण कर सार्वजनिक रूप से मौलवियों की टीम द्वारा धर्म परिवर्तन कर निकाह कराते देखा होगा। बांग्लादेश से भारत भागकर आये हिन्दुओं के मुँह से महिलाओं के बलात्कार की हजारों मार्मिक घटनाएँ सुनी होंगी। यहाँ तक कि म्यांमार में भी एक काफिर बौद्ध महिला के बलात्कार और हत्या के बाद शुरू हुई हिंसा के भीषण दौर को देखा होगा।केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में आदम हवस से बजबजाती इस घिनौनी सोच ने मोरक्को से ले कर हिन्दुस्तान तक सभी देशों पर आक्रमण कर वहाँ के निवासियों को धर्मान्तरित किया, संपत्तियों को लूटा तथा इन देशों में पहले से फल फूल रही हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता का विनाश कर दिया।

पूरी दुनियाँ में इसकी सबसे ज्यादा सजा महिलाओं को ही भुगतनी पड़ी…बलात्कार के रूप में ।आज सैकड़ों साल की गुलामी के बाद और नराधमों के अनवरत कुसंग के चलते समय बीतने के साथ धीरे-धीरे ये बलात्कार करने की मानसिक बीमारी भारत के पुरुषों में भी फैलने लगी।जिस देश में कभी नारी जाति शासन करती थीं, सार्वजनिक रूप से शास्त्रार्थ करती थीं, स्वयंवर द्वारा स्वयं अपना वर चुनती थीं, जिन्हें भारत में देवियों के रूप में श्रद्धा से पूजा जाता था आज उसी देश में छोटी-छोटी.. दुधमुंही.. देवी जैसी बच्चियों तक का बलात्कार होने लगा और आज इस मानसिक रोग का ये भयानक रूप हमें देखने को मिल रहा है। समस्याएं अनेक विकल्प सिर्फ कट्टरपंथ मुक्त भारत……?

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