लोग दिल्ली केा मौत का कुआं , गैस चैंबर आदि कहते है लेकिन इसके लिये उन्होने उपाय क्या किये यह नही बताते , नेता का कोई चरित्र नही होता इसलिये तवायफ के कोठे पर जाकर किसी अच्दी बात की उम्मीद करना गलत हैं। जो लोग दिल्ली में 2008 के पहले से रह रहे हैं, वो जानते हैं कि इससे पहले दिल्ली में कभी इस तरह से धुआं नहीं भरा करता था… अगर कभी थोड़ा बहुत होता भी था, तो अधिक से अधिक 1-2 दिन के लिए, जबकि किसान पहले भी पराली जलाते ही थे। 2008 के बाद अचानक ऐसा क्या हो गया कि दिल्ली प्रतिवर्ष गैस चेंबर बनने लगी ? इस बात को समझने के लिए इन 5 बातों को जानना बहुत आवश्यक है –
1. यूट्यूब पर सर्च करें तो पाएंगे कि 2007 के बाद अचानक मीडिया के एक विशेष वर्ग ने पंजाब और हरियाणा में घटते भूजल स्तर पर स्टोरीज की भरमार कर दी थी, छक्ज्अ इसमें सबसे आगे था… बताया जाता था कि कैसे पंजाब और हरियाणा में धरती के अंदर का पानी सूखता जा रहा है और किसान संकट में है।सवाल यह है कि मीडिया के लोग दिल्ली में ही घूमते रहते है और पूरे देश को गुमराह करते है। उन्हें देश के उत्थान से लगाव नही है उन्हें दिक्कत है कि यह देश तरक्की के मार्ग पर क्यों जा रहा हैं। इसलिये देश खराब है यह प्रचार करने में और उसकी तरक्की रोकने में लगे रहते है। देश में और भी जगह है जहां हवा जीवनदायी है लेकिन उसका विकास हो लोग वहां जाये , स्वस्थ जीवन हो , पर्यटन बढे इस बात पर गौर नही करते ।
2. इन समाचारों से पैदा दबाव के बहाने पंजाब और हरियाणा सरकारों ने यह कहते हुए अप्रैल में धान बोने पर प्रतिबंध लगा दिया कि इस समय धान बोने के लिए किसान बड़े-बड़े ट्यूबवेल चलाते हैं, जिससे ग्राउंडवॉटर सूख रहा है… अगर कोई किसान अप्रैल-मई में धान बोता है तो उस पर जुर्माना होता है… पानी आपके पास है नही , फसल का सिस्टम बिगाड रखा है। सब दोष किसानो का है सरकार में बैठकर करते है अपने राज्य के लिये पानी की व्यवस्था नही कर सकते जिससे अब किसान जून के आखिर में बुआई के लिए विवश हैं, जिससे फसल देर से अर्थात दिपावली के आसपास तैयार होने लगी। उसका हर हाल में नुकसान हो रहा है । सरकार को तो विदेशी कम्पनियो से रिष्वत मिल रहा है। उसका अनाज उंचे दाम में बेचने के लिये देश के किसान कहां जाये।हरियाणा के बगल पष्चिमी उत्तर प्रदेश है , राजस्थान है पंजाब है वहां प्रदुषण नही है।दिल्ली में ही क्यांे है।
3. दूसरी तरफ दिल्ली से लेकर अलवर तक अरावली के जंगलों की पूरी रेंज कटवाई जा रही थी… दिल्ली के वसंत कुंज में घने जंगल काटकर मॉल और होटल बनवाए जा रहे थे… उन दिनों कोई चिपको आंदोलन करने नहीं जाता था, क्योंकि इन निर्माणों में कांग्रेस के नेताओं का पैसा लगा था।दिल्ली में ही छोटे निर्माण कार्य पर रोक है बाकी पर नही , यह कहां का नियम है। मजदूरों की जिससे रोटी चलती है वह बंद और शहजादों के लिये निर्माण कार्य चालू। प्रदेश में बिककर काम करने से कुछ नही होगा। फक्टी चल रही है , प्रदूषण के सारे अड्डे चल रहंे है। उसपर कोई रोक नही । आड ईवन से क्या होगा । हर घर में चार नही तो तीन गाडी अवश्य होगी। एक करो , लेकिन हिम्मत नही है वह खुद करे बैठे है तो दूसरे को कैसे रोकें।
4. यह सब कुछ बिना यह जाने हो रहा था कि उत्तर भारत में हवाओं का पैटर्न कैसे मौसम के साथ बदलता है… दिवाली तक हवा का बहाव उत्तर से दक्षिण की तरफ हो चुका होता है, जबकि मॉनसून के आखिर यानी सितंबर तक हवाएं पश्चिम से पूरब की तरफ बह रही होती हैं… भारत के नक्शे में देखें तो पंजाब और हरियाणा दोनों ही राज्य दिल्ली से ऊपर की तरफ यानी उत्तर में हैं। सिर्फ पानी की व्यवस्था कर देने से यह काम रूक सकता था लेकिन निदान कर देगें तो राजनीति कहां से होगी । फसल बर्बाद , किसान बर्बाद और देश बर्बाद , लोगो का जीवन दूभर जिसके लिये पूरी तरह से सरकार जिम्मेदार है किन्तु पानी की व्यवस्था नही करती , राजनीति करती है।शर्म तो मानो बेंच खायी है।
5. जैव विविधतता के नाम पर फसल चक्र के साथ ये सारा खिलवाड़ एक मल्टीनेशनल बीज कंपनी मोंसेटो के दबाव में हुआ था, जो चाहती थी कि किसान उसके बीज से मक्का बोये… उन दिनो केंद्र में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी…तब छक्ज्अ सत्ता के विरोध में नहीं, बल्कि सत्ता के संकेत पर समाचार चलाता था। उस दौर में सत्ता के नषे में चूर इस चैनल पर लोग काफी ध्यान देते थे क्योंकि यह सरकारी उपलब्धियों को बताता था और यही उपलब्धियां सरकार का काम खत्म कर दी क्यो।कि वह कागज पर नही था। आज इस चैनल की हालत यह है कि अपने आप को बदल कर सरकार के विरोध में बोलता है लेकिन कोई सुनने वाला नही है।
आज हम दिल्ली में भरे जहरीले धुएं के लिए चाहे जिसे उत्तरदायी ठहराएं, लेकिन असली दोषियों का नाम तक नहीं जानते… मीडिया मोंसेटो का नाम नहीं लेगी, क्योंकि तब की कांग्रेस सरकारों और बड़े-बडे कृषि वैज्ञानिकों की तरह उसे भी अपना हिस्सा मिला था।