उत्तर प्रदेश में शामली के कैराना इलाके में जिस तरह की घटना हुई, वह राजनीति की परिभाषा को शर्मसार करती है। ब्लॉक प्रमुख चुनाव में समाजवादी पार्टी समर्थित एक उम्मीदवार नफीसा की जीत की खुशी में समर्थकों ने जमकर फायरिंग की, जिससे एक बच्चे की मौत हो गई। और सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण की यह पूरी घटना पुलिस की मौजूदगी में हुई। वहीं, यूपी के ही देवरिया ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में सपा उम्मीदवार के हारने के बाद समर्थकों ने जमकर हंगामा किया। उन्होंने वहां मौजूद लोगों के साथ मारपीट की और बाद में कई राउंड फायरिंग भी की। इस दौरान कई गाड़ियों के शीशे तोड़ दिए गए। सवाल है कि क्या हमारे लोकतंत्र के लचीलेपन का यही तात्पर्य है कि हम राजनीतिक अपराध का ऐसा घिनौना कृत्य पेश करें ? क्या सत्तासीन दल के नेता होने के नाते अहंकार इस कदर होना चाहिए जिससे जनता के मन में ख़ौफ़ बन जाए कि कल इसी नेता को तो हाथ जोड़ते देखा था और आज चुनाव खत्म होते ही ये क्या हो गया ? क्या ऐसे ही दिन देखने के लिए हमने आज़ादी पाई थी ? ये सवाल इसलिए हृदयविदारक हैं क्योंकि राजनीति जैसे सकारात्मक शब्द को नकारात्मक बनाने के लिए ऐसे ही लोग जिम्मेदार हैं।
मैं उत्तर प्रदेश की हालात को देखकर चिंतित इसलिए हूं क्योंकि यहां के आंकड़े चौंकाने और डराने वाले हैं। केवल लैपटॉप बांट देने से ही हमारा दायित्व पूरा नहीं होता। घर चलाने के लिए रोज़गार चाहिए और बेरोज़गार युवाओं की बढ़ती फौज उस अभिशाप की तरह है जिसका खामियाजा हिन्दुस्तान को भुगतना पड़ता है। यानि गलती एक राज्य में शासन की और भुगतना पूरे देश को पड़ता है। आज उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी का आलम है कि 5 करोड़ बेरोजगार युवा / व्यस्क ठोकरें खा रहे हैं। और ये सब तब है जबकि राज्य में लगभग 5 लाख सरकारी पद खाली पड़े हैं। उत्तर प्रदेश का जब एक आंकड़ा देखा तो शर्म से सिर झुक गया। पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में से 10.51 फीसदी अपराध अकेले यूपी में होते हैं। हमारी बहनें-बेटियां बाहर निकलते ही असुरक्षित महसूस करती हैं। आखिर क्यों ? क्या इसके लिए भी आमजन ही जिम्मेदार है या शासन भी कुछ जिम्मेदारी लेगा ? केवल अपने शागिर्दों को बचाने और संख्याबल को बढ़ाने पर ही आधारित राजनीति नहीं होनी चाहिए।
वर्ष 2011 और 2012 में उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों की क्रमश: 84 और 118 घटनाएं हुईं जिनमें 12 और 39 लोग मारे गए थे। वर्ष 2013 में यह आंकड़ा बढ़कर 250 तक पहुंच गया। वर्ष 2014 में भी स्थिति में कोई बदलाव नजर नहीं आया। 2015 में भी अपराध के बढ़ते आंकड़े पर अंकुश नहीं लगा। लूट, हत्या, डकैती, चोरी, बलात्कार जैसे संगीन अपराध रोक पाने में पुलिस फिसड्डी साबित हो रही है। जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस शशिकांत की लखनऊ खंडपीठ ने प्रदेश के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह और सचिव (नियुक्तियां) को निर्देश दिया था कि वे तत्काल कानून व्यवस्था को लागू करने वाली पुलिस को बेहतर बनाने के लिए कदम उठाएं। लेकिन केवल अदालत की सजगता से ही राज्य का कल्याण नहीं होगा, सरकार को भी शासकीय-धर्म का पालन निष्पक्षता के साथ निभाना चाहिए था, जिसमें उत्तर प्रदेश विफल रही। दरअसल, यूपी जैसे बड़े राज्य को एक कुशल नेतृत्व की जरूरत है।
वर्तमान परिस्थितियां विकट है जिससे हम सभी प्रभावित है. आज समाज अपराध और अपराधियों से ग्रसित है और इसके जिम्मेवार हम खुद है, हमने समस्याओं से समझौता कर लिआ है और अपनी दुनिया संकुचित कर ली है..सिर्फ कुशल नेतृत्व से परिस्थितीयों को बदलने का प्रयास किया जा सकता है? नहीं सर, वर्तमान सोच को बदलना होगा, कुछ गुन्हाओं के लिऐ सार्वजनिक कठोर सजा का प्रावधान करना होगा, न्याय प्रक्रिया गतिमान करनी होगी…और सर, स्वच्छ भारत के साथ साथ सामाजिक वातावरण की सफाई करनी होगी…