वंदेमातरम्…राष्ट्रगीत ही नहीं, राष्ट्र की आत्मा भी है ….

जिस ‘वंदेमातरम’ के लिये भगत सिंह और राजगुरु    जैसे देश भगत  हसते हसते फांसी पर झूल गये उसी वंदेमातरम को  मध्य पर्देश में कांग्रेस ने बंद करा दिया मगर भारी विरोध के बाद कमलनाथ का यू-टर्न, अब पुलिस बैंड के साथ गाया जायेगा।

“वंदेमातरम्”

वंदेमातरम….यह शब्द आते ही मन में देशप्रेम की भावना आती है। देश के सामने सिर नतमस्तक हो जाता है। यह ऐसा मंत्र है, जिसे हृदय में धारण कर देश के सपूत अमर बलिदानी हो गए। देश को ब्रितानी हुकूमत से आजाद कराने के लिए फांसी के फंदे पर झूल गए। यह राष्ट्रगीत ही नहीं, राष्ट्र की आत्मा भी है।

राष्ट्रगीत में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसको लेकर विवाद हो। ‘आनंदमठ’ उपन्यास में प्रकाशित बंकिम चंद्र चटर्जी के कालजयी गीत के दो छंद राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किए गए हैं। इसमें अपनी मातृभूमि की वंदना की गई है। मातृभूमि पर गर्व किया गया है। गीत के प्रथम दो छंद मातृभूमि और उसके उपहारों के बारे में जानकारी देते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिस पर धार्मिक या किसी अन्य दृष्टि से विवाद हो।इसके दो छंदों का अर्थ तो देखिए- मैं आपकी वंदना करता हूं माता। आपके सामने नतमस्तक होता हूं। पानी से सींची, फलों से भरी, दक्षिण की वायु के साथ शांत, कटाई की फसलों के साथ गहरी। उसकी रातें चांदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं। उसकी जमीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुंदर ढकी हुई है। हंसी की मिठास, वाणी की मिठास। माता, वरदान देने वाली, आनंद देने वाली।राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे रहीमतुल्ला सयानी। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेजी में और आरिफ मोहम्मद खान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया।

जब बना मंत्र

बंगाल के विभाजन के समय हिंदू और मुसलमान दोनों ही इस गीत को पूरा गाते थे। 1906 से 1911 तक इस मंत्र ने लोगों को इतनी ज्यादा ताकत दी कि उनके जोश को देखते हुए अंग्रेजों को बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। कितने ही क्रांतिकारियों ने वंदे मातरम कहकर फांसी के फंदे को चूमा। सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज ने इस गीत को आत्मसात किया था।

पहले भी हुआ विवाद

इस गीत पर विवाद होने के चलते वर्ष 1937 में कांग्रेस ने इस पर गंभीर चिंतन किया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कमेटी बनाई गई, जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे। उन्होंने पाया कि इस गीत के शुरुआती दो पद मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गए हैं। वही मातृभूमि जिसे मुसलमान मादरे वतन और अंग्रेज होली लैंड कहते हैं।

संविधान सभा में वक्तव्य

देश की आजादी के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 में वंदे मातरम को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने संबंधी वक्तव्य को पढ़ा, जिसे स्वीकार कर लिया गया। संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य – शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से संबोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है, बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वंदे मातरम गान, जिसने कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। मैं आशा करता हूं कि यह सदस्यों को संतुष्ट करेगा।

वंदे मातरम का अर्थ कोई धर्म नहीं कोई जाति नहीं, यह तो मूल संस्कृति है

अखिल भारतीय अधिकार संगठन से जुड़े डॉ. आलोक चांटिया कहते हैं कि राष्ट्रगीत वंदे मातरम को सांप्रदायिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए। जो लोग वंदे मातरम के प्रति दुराग्रह रख रहे हैं, वे वास्तव में लोगों को सच्चे इतिहास से दूर ले जा रहे हैं। लोगों के पास न तो इतिहास को पढऩे का वक्त है और न समझने का वक्त है। लोग उनकी बातों पर सुनते हैं जिनके पास विचारों की गहराई नहीं है। वर्ष 1896 में अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार इसे सार्वजनिक तौर पर गाया गया। लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया तब बंगाल की सड़कों पर हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी धर्मों के लोग एक साथ उतरे और लगातार चार सालों तक वंदे मातरम गाया। आजादी मिलने के समय संविधान सभा में सरोजनी नायडू ने वंदे मातरम का गान किया। तब पूरी संविधान सभा ने इसे गाया। इस संवैधानिक सभा में अबुल कलाम आजाद जैसे लोग भी थे। वर्ष 1952 में देश के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद ने राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा मंत्रियों की एक बैठक बुलाई थी और उसमें उन्होंने वंदे मातरम का गान किया। वंदे मातरम में प्रकृति की बात है। इसे धर्म और जाति से न जोड़ें, यह देश की मूल संस्कृति से जुड़ा है जो धर्म-जाति से ऊपर है। 

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