नागरिकता पर ऐसा मंजर क्यों ?

नरैटिव सैटर, एजेंडा सैटर और लोकतांत्रिक खिलाड़ी लोग इनकी कितनी महीन ट्रेनिंग है, जानना है तो अभी इनके विरोध प्रदर्शनों को देखिए। पूरा खेल इतना गंदा और कलात्मक है कि अच्छे अच्छे बेहोश हुए पड़े हैं। कहाँ तो दूसरे देशों के शरणार्थियों को नागरिकता देने की मानवीय पहल और विश्व बंधुत्व की भावना और कहाँ इसके विरोध में अपने ही विद्यार्थियों को खड़ा कर दिया गया।  एक तरफ इस्लामिक रिपब्लिक आफ बांग्लादेश, दूसरी तरफ इस्लामिक स्टेट पाकिस्तान और उधर अफगानिस्तान। जब अब्राहमिक लोग संख्या बल में अधिक होते हैं तो वह माइनारिटी के साथ कैसा व्यवहार करते हैं यह पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थी बताएंगे। इस्लामिक पड़ोसियों के भगाए लोगों को हम शरण नहीं देंगे तो देगा कौन? हम तो वैसे भी कृष्ण राम की संतान हैं। शरण गए प्रभु काहु न त्यागा।यह रिफ्यूजी जिनकी भौतिक, मानसिक, आत्मिक अभाव, व्यथा, दुख, परवशता, उत्पीड़न, कमजोर कंटेम्पररी सोशल स्ट्रक्चर यही कुल संचित निधियां हैं। यह रिफ्यूजी जिनमें हिंदू दलितों की संख्या सर्वाधिक है। पाकिस्तानी आकाओं ने विभाजन के समय इन्हें भंगी और सफाई कर्मचारियों जैसे कामों के लिए जबरन रोक लिया था।  जो लोग नहीं चाहते थे कि इस्लामिक आतंक से डरे पाकिस्तान बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए अल्पसंख्यकों को इस देश में जगह मिले उनके बीच जरूर एक तरह का अनरेस्ट था।

 इस जेहादी जेहन को स्टूडेंट्स एजिटेशन का रूप देना और रूमानी मेंटेलिटी वाले युवक युवतियों का सपोर्ट मिल जाना बेहद खौफनाक रणनीति का नतीजा है। इस एजिटेशन के बाद केवल ए एम यू, जामिया या जे एन यू ही नहीं बल्कि हमारी पूरी शिक्षा नीति, शिक्षण प्रक्रिया और सिलैबस पर गहराई से काम करने की आवश्यकता है।धर्म निरपेक्षता, अल्पसंख्यकों के अधिकार और संविधान की रक्षा जैसी तोता रटंत चीजों को रूमानी आवरण और ग्लैमर के काकटेल के साथ ऐसे प्रस्तुत किया गया कि यही पुरूषार्थ है यही चरम आदर्श है। सही मार्गदर्शन के अभाव में कलैक्टिव फ्रस्ट्रेशन के शिकार युवाओं को इनका आकर्षण लीलता गया। जिस पर शेरो शायरी और नारे गढ़ने का इनका बढ़िया अभ्यास। आसानी से उपलब्ध रूमानी और दुश्चरित्र पब्लिक इंटेलैक्चुअल्स और विदेशी क्रांतियों का स्वप्न सरीखा सस्ता साहित्य। परिणाम स्वरूप थोड़े अधिक पढ़ाकू और खाए अघाए परिवारों के बच्चे भी इधर कूं चल पड़े।

बात बात पर फैज मजाज मंटो, माओ, लेनिन, स्टालिन, ट्राटस्की, सिमोन द बुआ के घिसे पिटे कोट्स।   घटिया चरित्र वाले दोस्तों से प्यार घर वालों को इनकार। कुल उत्पादकता शून्य। इश्क और इंकलाब के ख्वाब। कागजी रूमानियत। यूटोपिया और सेल्फ डिनायल।बस इससे ज्यादा कुछ नही।वैसेे ऐसी भीड़ को बरगलाना बहुत आसान है। सैकड़ों सालों से इनकी राजनीतिक समझ में धेले भर का फरक नहीं आया। ये आज भी किसी कल्पित ब्राह्मणवाद और जो अस्तित्व में ही नहीं ऐसी पितृसत्तात्मक किसी हवा हवाई सत्ता से लड़ रहे हैं। पर यह इतने मासूम भी नहीं। इनकी असल लड़ाई नौकरियों सुविधाओं और लड़कियों पर नियंत्रण को लेकर है जिसमें यह सफल भी हैं। वास्तविक बुद्धिजीवी या जमीनी क्रांतिकारी को यह मयस्सर नहीं। सच मानिए अगर आप तर्कशील हैं और अपने देश परम्परा और परिवार से आपको प्रेम है जरा भी तो ये आजादख्याल तितलियां आपकी तरफ देखेंगी तक नहीं।

उधर अब्राहमिक वणिक वृत्ति बारगेनिंग की एक्सपर्ट है। रोटी बोटी और जिंदा बोटी के लालच देकर वह इनसे अपने काम कराते रहते हैं। इनके लिए रेप एक पालिटिकल टूल हो सकता है तो औरत का शरीर कांबैट आफ सिविलाइजेशंस का बैटल फील्ड।क्या यही भारतीय संस्कृति है।
हैदराबाद घटना के बाद डेमोक्रेटिक भेड़ें कैंडल जला रही थीं इंडिया गेट पर वहाँ भेड़िए भी थे तहर्रूश है खेल जिनका। तहर्रूश गेमिया के खिलाड़ी भी जमे थे ‘जंतर-मंतर’ पर । न्याय की देवी की आंखों में फिर धूल झोंका गया था।हमारे देश काल को एक बदबूदार धुएँ और धुंध की लत है। नई उमर की लड़कियाँ इस धुएँ के लिए ईंधन हैं। जलाई जा रही हैं , वो प्रोटैस्ट कर रही लड़की जो सुरक्षाकर्मियों को गुलाब के फूल दे रही है, वह सबसे सुंदर लड़की जिसे बुलाया गया है चीफ गेस्ट को बुके सौंपने के लिए, वह नवयौवना जो माल्यार्पण कर रही नेताजी का, वह माडल जो अर्द्धनग्न विज्ञापन का विद्रूप हिस्सा है।भेड़िए अब भीड़ का हिस्सा बन चुके हैं।

          यह रंग साजिशों के रंग के सिवा भी बहुत कुछ है। भारत के चेहरे पर अब हजारों हजार पाकिस्तानी चकत्तों के दाग हैं। कभी डेमोक्रेसी, कभी कांस्टीट्यूशन और कभी सेकुलर प्रलाप के ब्लू पीरियड्स की आड़ में भले दिल्ली अपनी छाती का कोढ छुपाने की कोशिशें करे यह कोढ़ अब छुपने वाला नहीं है।इस देश में विद्यार्थियों के मानस की एक दिशाहीन परम्परा का बड़ी खूबसूरती से पालन हो रहा है अपने यहां।विद्यार्थी ट्रैन बस का टिकट नहीं लेंगे। क्यों भाई? विश्वविद्यालय कैंपस में पुलिस या अर्द्धसैनिक बल नहीं घुस सकते। क्यों ?हर विश्वविद्यालयी विद्यार्थी हड़ताली होना जरुरी है?प्रोटैस्ट में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना एक कूल बात है। सार्वजनिक संपत्ति कोई शत्रु संपत्ति है क्या? इस कुत्सित परम्परा को बदलने का समय आ गया है।खैर, इस पूरे मुद्दे ने एक बात तो क्रिस्टल क्लियर कर दी कि भारतीय नागरिकता बड़ी ही मूल्यवान चीज है।

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