आजादी के अमृत काल में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस लोकतांत्रिक सुंदरता का हम आनंद उठा रहे हैं उसके लिए हमारे सर्वश्रेष्ठ विद्वानों और देशवासियों ने अपना सर्वस्व निछावर किया हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि आरोप-प्रत्यारोप से बाहर आकर राजनीति को स्वच्छ बनाएं और वह तभी संभव है जब हम राजनीति का महत्व समझेंगे। राजनीति समाज में संघर्षों के समाधान की कुंजी है। यह व्यक्तिगत और सामाजिक विकास का साधन है जो लोग अभी नहीं समझ रहे हैं । जनता ईमानदारी से और बिना भेदभाव के जनहित के लिए लिए गए कठोर निर्णय को भी पसंद करती है लेकिन आज हम स्वार्थ बस लोकलुभावन निर्णय ले रहे हैं और लोकतंत्र के किसी सिद्धांत के रैपर को लपेट कर जनता को पेश कर दे रहे ।इसे बदलना होगा इसके लिए हमें नई राजनीति और नए राजनीतिज्ञों का सृजन करना होगा । वरना इस देश की संप्रभुता खतरे में आ जाएगी।
आज राजनीतिक दलों के पास है झंडे का अकाल है उनका ध्यान सत्ता प्राप्त या सत्तारूढ़ दल को गिराने पर है। वह नहीं जानते कि सत्ता मिलने पर उनके पास विकास की क्या वैकल्पिक योजना होगी ।उनके पास कितने युग के लोग हैं। अधिकांश दलों में अपराधिक किस्म के लोगों की आवक हो रही है जो केवल अपना हित चाहते हैं उन्हें ना अपने कार्य का ज्ञान है और ना ही उनमें कोई रुचि है।विभागीय फैसलों के दूरगामी परिणामों का आकलन करने में भी समर्थ नहीं है अधिकारियों से अपेक्षा करते हैं कि वह उनका काम करते रहे ,चाहे वह नियम विरुद्ध ही क्यों ना हो नौकरशाह भी जानते हैं कि वर्तमान राजनीतिक संस्कृति में उनके पास कोई विकल्प नहीं है ।क्या नेताओं को भी आभास है कि 21वीं सदी में भारत के बढ़ते वैश्विक प्रभाव के चलते उनकी किसी गंभीरता एवं विशेषज्ञता की जरूरत है ।क्या कोई भी राजनीतिक दल साफ-सुथरे शिक्षक और देश के प्रति समर्पित युवाओं को राजनीति में या उसका प्रयास कर रहा है देश की राजनीति में छात्र संघों का प्रयोग पूर्णता सफल रहा इसके युवा नेता भले सामान्य था उसे गुंडे बदमाशों में हाईजैक कर लिया ।जिन्होंने अपना दल बना लिया है देश में योग्य युवाओं का जो अक्षय भंडार है उसे तो किसी पार्टी ने छुआ ही नहीं क्या किसी पार्टी को यह नहीं सोचना चाहिए कि आगामी 50 वर्षों के स्थानीय प्रांतीय राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व का स्वरूप कैसा हो।
2006 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में द्रमुक ने अपने घोषणापत्र में रंगीन टीवी देने का वादा किया था सरकार बनने के बाद द्रमुक ने इस वादे को पूरा करने के लिए सरकारी खजाने से 750 करोड़ रुपए आवंटित किए ।2011 के विधानसभा चुनाव में द्रमुक ने ऐसे वादों को पुनः दोहराया जवाब में प्रतिद्वंदी अन्नाद्रमुक ने उससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए घोषणापत्र में सभी मतदाताओं को मिक्सर ग्राइंडर, बिजली के पंखे, लैपटॉप, 4 ग्राम सोने की वस्तु ,विवाह हेतु वधू को ₹50000 ,20 किलो चावल गाय और भेड़ देने का वादा किया। अन्नाद्रमुक की भारी जीत हुई उसके बाद उसके इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई ।सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में 5 जुलाई 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह आचार संहिता में ऐसा प्रावधान करें कि राजनीतिक दल लोकलुभावन घोषणाएं न करें। राजनीतिक दलों ने कानून बनाकर इस मामले को रोकना चाहा आयोग ने सभी दलों से परामर्श 2019 में कुछ कदम उठाए करें इस संबंध में सभी दलों से 19 अक्टूबर तक राय मांगी है।
लेकिन लगता है आम आदमी पार्टी में तमूरा के मॉडल अपना लिया है मुफ्तखोरी वाली योजनाओं के दम पर पहले दिल्ली और फिर पंजाब में अपनी सरकार बनाई मुफ्तखोरी की राज नीति उसी तरह घातक है जैसे परीक्षा में नकल करके पास होना ।नकल में अंततः छात्र का ही नुकसान होता है मुफ्तखोरी की राजनीत से जनता अर्थव्यवस्था और राजनीतिक दलों का भी नुकसान होता है सत्ता लोलुप वह नहीं देखते कि संसाधन कहां से आएंगे ।क्या जनता उसको बहुत सताएगी ।जैसे जैसे नेता और दल जनता को मुफ्त खोरी की लत लगाएंगे ।वैसे-वैसे मुफ्तखोरी कि उनकी भूख बढ़ती जाएगी फिर कोई मेहनत क्यों करेगा जो समाज मेहनतकश नहीं वह आगे कैसे बनेगा ऐसे दलों को जनता में परिश्रम पुरुषार्थ के सरकार
प्रतिरोध करने चाहिए ।आम आदमी तो बहुत स्वाभिमानी है उसे मुफ्तखोरी की आदत पद ,पार्टी, विकास ,कल्याण करें और गरीबों के प्रति संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करें लेकिन जनता के आत्मसम्मान पर आघात कर उसे समाप्त करे।
कई राज्यों में विधानसभा उपचुनाव होने जा रहे हैं इसके बाद कुछ चुनाव प्रस्तावित हैं कई राज्य में पंचायत और नगर के चुनाव होने हैं इस प्रकार देखे तो भारतीय राजनीत चुनाव में हो गई है क्या चुनाव भी अभीष्ट है क्या नेताओं दलों और जनता के पास और कोई काम नहीं है क्या दलों का उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना मात्र है लोकतंत्र और राजनीति का चुनावी करण वर्जित है प्रख्यात नानी पल्खीवाला में के अनुसार चुनाव लोकतंत्र की धड़कन है यदि वह बहुत जल्दी-जल्दी होते हैं या बहुत देर में होते हैं तो दोनों ही खतरे की घंटी का संकेत है ।
हमारे लोकतंत्र में हर समय चुनाव होना ,खतरे की घंटी तो नहीं ,जब लोकतंत्र चुनाव केंद्रित हैं तब नेताओं का ध्यान शासन कैसे लगेगा ।वह हमेशा चुनाव में व्यस्त रहते हैं जिन दलों के पास अपना कैडर नहीं है उनकी समस्या और जटिल है वह चुनाव जीतने के लिए विचारधारा या मुद्दों के बजाय धनबल, बाहुबल ,जाति ,वक्ता का सहारा लेते हैं ऐसे मतदाताओं को प्रलोभन देते हैं जो चुनाव के संदर्भ में समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं ।यह समस्या बहुत पुरानी है जिसका निदान अब हो जाना चाहिए।
जोशी जी आप माँ सरस्वती के वरद पुत्र हैं आपने अपने अग्रलेख में जिन विन्दुओं को उठाया है वे हम देश वासियों को विचार चिंतन को उद्द्वेलित करते है दुर्भाग्य से पठन पाठन और अध्यन से दूर होती देश की युवा पीढी इस ओर आँखे बंद किये है? “क्या देश में लोकतत्र—-लेख भारत की स्थिति और परिस्थितियों का सार और चेतावनी भी है,आपकी विद्वता को नमन।
डा वीपीगौतम बरेली