युगंधर योगेश्वर कृष्ण

janmashtamiआज कृष्ण जन्माष्टमी है। आज ही के दिन जयंती नामक रात्रि, विजय नामक मुहूर्त पर ’अभिजित’ नक्षत्र में श्रीकृष्ण जी का जन्म 5201 वर्ष पूर्व हुआ था।

इस देश की संस्कृति की जाली (तानेबाने) में रामायण और महाभारत इन दोनों का अतिमहत्वपूर्ण योगदान है। रामायण के राम जैसे भारतीयों का स्फूर्तिमानव है वैसा ही महाभारत के श्रीकृष्ण धर्म साम्राज्य की निर्मिति करने वाला आदर्श नेतृत्व का दिग्दर्शन करानेवाला पूर्णपुरूष हैं।

धर्मराज्य संस्थापना हेतु निःस्वार्थ भाव से अथक प्रयत्न करनेवाला श्रीकृष्ण ऐसी अनेक विलक्षण अन्यायपूर्ण परिस्थितियों में जन्मा, जन्म पश्चात अपने जन्मदात्री माता-पिता को छोड़ नंद यशोदा को माता पिता स्वीकारना पड़ा।

श्रीकृष्ण करीब 127 साल जिये। कौरव-पांडव युद्ध पश्चात युधिष्ठिर ने राज्य सम्हाला तो राजा बनने के पश्चात 36 वर्षों तक राज्य किया। कौरव पांडव के युद्ध के समय श्रीकृष्ण की आयु करीब 80 वर्ष की थी।

उस समय प्राचीन भारत आर्यावर्त या भारतवर्ष के नाम से जाना जाता था। इस भूखंड पर अनेक छोटे बड़े राजाओं का राज्य होता था। उस समय हस्तिनापुर (दिल्ली मेरठ के आस पास का क्षेत्र) का कुरूवंशीय राजपरिवार, मगध (बिहार) जरासंध का राजप्रदेश, मथुरा के यादववंशीय राजपरिवार ये सुप्रसिद्ध तथा सामथ्र्यवान होते थे। तत्कालीन आर्यावर्त में वर्तमान का अफगानिस्तान (गांधार), म्यानमार (ब्रह्मदेश), श्रीलंका ये सारे भूभाग समाविष्ट थे। मथुरा में उग्रसेन राजा राज्य कर रहे थे। उनके दुष्ट पुत्र कंस उन्हें पदच्युत कर राजगद्दी हथियाई और अपने पिता उग्रसेन को कारावास में डाल दिया। बाद में श्रीकृष्ण और बलराम ने कंस का पराभव किया और कारावास में बंद उग्रसेन को मुक्त कराकर मथुरा की राजगद्दी सौंपी।

श्रीकृष्ण का मामा कंस एक दानवी राजा था। उसका वध उन्होंने किया और धर्मनीति अनुसार उग्रसेन को राजगद्दी सौंपी। बलदंड, कार्यदक्ष, परमन्यायी, प्रजाहित दक्ष ऐसे राजा उग्रसेन को राजकाज सौंपकर श्रीकृष्ण ने एक न्यायराज्य स्थापित किया।

कंसवध से उसका ससुर जरासंध काफी नाराज, उद्ग्नि और क्रोध में था। जरासंध का राजपाट वर्तमान के बिहार में था। जरासंध अपने दामाद कंस के वध का बदला लेने के लिए मथुरा पर आक्रमण करने की सोच रहा है यह समाचार मथुरा पहुंचा। मथुरा में सभी गणमान्य  राजदरबारियों की बैठक हुयी। इसमें ये अनेकों ने कहा कि जरासंध की बलशाली सेना का मुकाबला मथुरा कर नहीं  पायेगी। जरासंध केवल श्रीकृष्ण को मारने के आशय से धावा बोल रहा है अतएव कृष्ण ने निर्णय लिया कि मथुरा छोड़कर दक्षिण में स्थित यादव राज्यों में जाकर रहना ठीक रहेगा। वसुदेव, विक्रूर इन वरिष्ठों का भी यही मत रहा। वरिष्ठों की बात मान्य रखते हुए कृष्ण ने कहा मैं और बलराम दोनों इस राज्य को छोड़ दक्षिण की ओर चले जाते हैं और उन्होंने वैसा ही करते हुए गुजरात में द्वारका की ओर गये।

कृष्ण, मनुष्य थे अतः मानवी व्यवहार किया। मानवी शक्ति द्वारा ही कार्य कर रहे थे, दैवी शक्ति से कुछ करने की स्थिति रहती तो महाभारत होता ही नहीं।

प्रत्यक्ष अपराध करने वाला दुर्योधन जितना दोषी है उतने ही दुर्योधन के अपराधों को प्रेक्षकों की भूमिका से देखनेवाले, स्वसामथ्र्य का उपयोग न करनेवाले भी हैं। यह भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य आदि कुरूवृद्धों का स्पष्ट कहा था।

कौरव पांडव युद्ध में कौरवों की सेना में एक से एक महारथी थे। पांडवों की सेना में तुलनात्मक रूप से कम शक्तिशाली योद्धा थे। लेकिन कौरव सेना के योद्धाओं में एक दूसरे में काफी अंतर्कलह था। कार्य से अधिक अहंकार उनके दिमाग पर हावी था। भीष्म और कर्ण में अनबन, कर्ण और अश्वत्थामा, कर्ण तथा कृप इन में आपसी दूरियां होने से कौरवों की सेना संगठित नहीं थी।

बहवो यत्र नेतारः सर्वे पण्डितमानिनः।

       सर्वे महत्वमिच्छन्ति तद् राष्ट्रमवसीदति।।

जिस देश में नेताओं की संख्या काफी होती है और सभी नेता स्वयं को अधिक बुद्धिमान समझते हैं तथा मुझे ही महत्व मिले ऐसी इच्छा रखते हों, वह राष्ट्र शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होता है। (महर्षि व्यास)

जबकि पांडव सेना में श्रीकृष्ण के नैतिक नेतृत्व में कम शक्तिशाली , कम संख्या की सेना होते हुए भी संगठित तथा लक्ष्ययुक्त होने के कारण विजयी हुयी। युद्धकाल में श्रीकृष्ण ने धर्मयुद्ध के बजाय युद्धधर्म प्रमाण मानकर समय समय पर पांडवों को योग्य सुझाव-सूचना करके, संभ्रमित अवस्था में उचित मार्गदर्शन करने का कार्य किया। साधनशुचिता का केवल हल्ला न करते हुए जिनका अंतिम परिणाम जनविरोधी मूल्यों की स्थापना में होना है और अन्य बाते कितनी ही सही हों फिर भी वो पापमय हैं। तथा जिनका अंतिम परिणाम समाज के सामने आदर्श मूल्य प्रस्थापना है, ये बातें दिखने में पापमय लगती होंगी फिर भी वह पुण्यमय ही रहेगी। इस नीति को कृष्ण ने स्वीकार किया।

कौरव और पांडव, इनके युद्ध की ओर देखने पर कौन स्वार्थी था। पांडव अपने न्याय, हक हेतु लड़ रहे थे उसको अधिकतर उदात्त स्वार्थ कहा जा सकता है। परंतु कम या अधिक स्वार्थ स्पर्श जिसके अंतःकरण में नहीं था और निःस्वार्थ रूप से देश में धर्मराज्य स्थापना करना यह उद्देश्य रखनेवाला लड़ाई के मैदान में एकमेव महापुरूप कृष्ण ही थे। कृष्ण नहीं होते तो पांडवों का पक्ष धार्मिक, सत्यनिष्ठ, उच्चमूल्यों पर आधारित होते हुए भी उनकी विजय संभव नहीं थी।

कौरव पांडव युद्ध के प्रारंभ होते समय जब दोनों ओर की सेना आमने सामने खड़ी हो गयी। अर्जुन ने जब कौरव पक्ष में अपने रिश्तेदारों, आचार्य, गुरूजनों को देखा तो उसके मन में प्रेम, वात्सल्य, ममता इन भाव भावनाओं का समिश्रण हुआ। युद्ध से कितनी अपरिमित हानि होगी इसकी कल्पना से मन में हताशा-निराशा छा गयी। उन्होंने अपना धनुष रथ पर रख दिया। कौरवों ने मुझे मार दिया तो भी चलेगा लेकिन मैं उनपर हाथ नहीं उठाउंगा। इहलोक का राज्य तो क्या त्रिलोक का राज्य भी मुझे मिले तो भी स्वजनों को मारकर, गुरूहत्या कर मुझे यह नहीं चाहिए ऐसा कहकर जब वो रथ में बैठा तो ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण भी दंग और अचंभित रह गये। उसके सारे मोह को नष्ट करने हेतु कृष्ण ने अर्जुन को जो विश्व उद्धारक, तत्वमीमांसा कथन किया उसे ’’श्रीमद् भगवतगीता’’ कहते हैं। मानवी जीवन की विकसित परंपरा जिससे स्थिरता प्राप्त करेंगी ऐसे शाश्वत जीवनमूल्य और तत्वज्ञानका महान आविष्कार है।

कृष्ण युद्ध के मैदान में अर्जुन के सारथी बने। सारथी को रथ चलाने के साथ साथ रथ पर जो सेनाधिकारी रहता है उसके निर्देशानुसार कार्य करना पड़ता है। युद्ध में सारथी अगर मारा जाता है तो सेनाधिकारी के रथ का पहिया टूटने जैसा होता है। वैसे योद्धा के लिए सारथी का कार्य करना यह निम्न कार्य का द्योतक माना जाता रहा है। स्वयं श्रीकृष्ण ने महायोद्धा होते हुए भी यह कम दर्जे का कार्य स्वीकार कर वह पार्थसारथी हुए।

योद्धा के स्वभाव वैशिष्ट्य का वर्णन करते समय भगवतगीता के 18 वें अध्याय के 43वें श्लोक में कहा

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।

शौर्य , तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध में पीठ न दिखाना, औदार्य, नियंत्रक की भावना यह योद्धा के स्वाभाविक गुण कृष्ण पर समान रूप से लागू होते हैं।

अपने आयुष्य का ध्येय साध्य करते समय कुष्ण ने खुद राजा होने का लोभ कभी किया नहीं। कंसवध के पश्चात उग्रसेन को मथुरा का राज्य दिया। जरांसंध वध पश्चात सहदेव को उन्हांेने स्थापित किया। आसाम में दैत्य राजा नरकासुर के वध पश्चात उसके बेटे भगदत्त को राजसिंहासन पर विराजमान किया।

कृष्ण मतलब एक प्रवाही व्यक्तिमत्व। समाजरक्षण यह उसका धर्म, किसी भी कार्य की उपयोगिता वह लोकसंग्रह इस निष्कर्ष से प्रमाणित करते थे। उनके धर्म की, न्याय की व्याख्या एक ही थी याने समाज कल्याण यह ही धर्म। लोगों के उत्कर्ष के लिए धर्म नियम।

मौसल पर्व में यादवी हुयी, यदुवंश का काफी विनाश हुआ। जिस धर्मराज्य की निर्मिती हेतु अनुशासन राजव्यवस्था को लगाने के आशय से कृष्ण ने अपनी सारी जिंदगी लगायी उन्हीं को अपने जीवन के अंतिम कालखंड में युदवंश में यादवी देखने को मिली। धर्मच्युत, व्यसनाधीन, उदंड, बलदर्पित-धनदर्पित यादव बंधु, सखा, मित्र, पुत्र, प्रपौत्र देखने की स्थिति आयी। यादववीर नशे में एकदूसरे पर हमले कर रहे हैं, अपना कोई सुन नहीं रहा है यह कृष्ण का अपयश है क्या? जिनको सम्राट का भय नहीं, चलने फिरने पर किसी का बंधन नहीं, ऐसे लोगों के जीवन का कोई ध्येय न रहा तो हिप्पी संस्कृति जैसे पशुवत जिंदगी जीते हैं ऐसे आदमियों को मारना ही श्रेयस्कर होगा। श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से अनेक यादवों को मारकर दुनिया के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया इससे तो कृष्ण का युगपुरूषत्व ही सिद्ध होता है।

श्रीकृष्ण को अनासक्त कर्मयोगी कहते हैं तो उसके अनुरूप मौत तो समाधि से होनी चाहिए, लेकिन हुयी कैसे तो शिकारी के तीर से इसका मतलब योगसिद्ध व्यक्ति और सामान्य व्यक्ति दोनों के शरीर शांत होते समय एक ही रास्ते से प्राण जाते हैं।

कृष्ण जीवन याने कारूण्ययुक्त कथा है। कारागृह में जन्म, जन्मतः माता-पिता से दूर, जन्मदात्री के स्तनपान का आनंद भी नहीं ले सके, सतत भय के वायुमंडल में बचपन गुजरा, बाद में मथुरा मुक्त किया लेकिन जाकर बसना पड़ा द्वारका में। द्वारका नगरी खुद ने बसाई लेकिन राजा बने नहीं।

श्रीकृष्ण अष्टपैलु व्यक्तित्व हैं। अष्टपैलु व्यक्तित्व याने व्यक्ति ने अपने जीवन के सभी आठों पहलुओं का विकास किया हो। व्यक्तिगत जीवन, कौटुंबिक जीवन, पारिवारिक जीवन, धार्मिक जीवन, सांस्कृतिक जीवन, पारिवारिक जीवन, व्यावसायिक जीवन, सामाजिक जीवन, संगठन जीवन।

इसलिए हरेक भारतीय व्यक्ति के मन में कृष्ण का स्थान होता है। व्यक्ति राजनीतिक, समाजसेवी, लक्ष्मीपूजक, धनवान, सरस्वतीसाधक, सामान्यजन तथा जीवन के किसी भी क्षेत्र का व्यक्ति अपने ढंग से श्रीकृष्ण को देखता है। राजनीति के क्षेत्र के लोगों को कृष्ण युद्धनीतितज्ञ, युद्धविद्यानिपुण, सूक्ष्मदर्शी दिखता है। आदर्श नेतृत्व का परिपाठ सामने दर्शाता है। कौटुंबिक  और सामाजिक जीवन मे पुत्र, बंधु, मित्र, पिता, पति, प्रियकर, वादक, नर्तक, संभाषणचतुर, वक्ता आदि विविध भूमिकाओं में श्रीकृष्ण अपना आदर्श दुनिया के सामने रखते हैं। तत्वज्ञान के क्षेत्र में पिंड और ब्रह्म के एकरूपत्व का विश्लेषण करते हैं तो धार्मिक क्षेत्र मे व्यावहारिक दृष्टिकोण पर बल देते हैं। धर्मसाम्राज्य निर्माण ये अपने अपने आयुष्य का ध्येय समझकर स्वार्थ निरपेक्षरूप से हरेक चीजों में रूचि लेनेवाली अनेक घटनाएं करवानेवाले, समय पर यश का श्रेय सहयोगी और मित्रों को देनेवाले ऐसा यह विलक्षण महापुरूष हैं परंतु इनके जैसा ही ये कहें कि दुनिया का एकमेव पूर्ण पुरूष कृष्ण के विभूतिमत्व का एक पैळू याने जीवनयात्रा में विविध भूमिका में उन्होंने जो आदर्श प्रस्तुत का उच्चांक प्राप्त किया। बेटा, भाई, प्रियकर, पति, पिता, मित्र, नेता, कलाकार, योद्धा, युगपुरूष, मुसुद्दी और इसमें किसी भी बातों में न लिप्त हुआ इसे इतिहास में दूसरा अवर्णनीय व्यक्तित्व ही नहीं।

आज हम प्रगत विज्ञान और तंत्रज्ञान के युग में खड़े हैं। संचार तंत्र ने प्रगति की है। दुनिया के किसी भी कोने में घटी घटना की जानकारी हमें तुरंत प्राप्त होती है। ध्वनि की गति से अधिक गति से हम वायुयान चला लेने में सक्षम हुए हैं। मंगल तक पहुंचने में हमने सफलता प्राप्त किया है। मानवी जीवन जीने का तरीका सुखकर हुआ है। लेकिन इस सारे में व्यक्ति सुसंस्कृत हुआ है ऐसा नहीं कह सकते।

भौतिक प्रगति में हमने शायद पंचमहाभूतों पर आधिपत्य स्थापित कर लिया है। सुख साधनों की विपुलता उपलब्ध की है लेकिन ये सब साधन याने सुख नहीं इनसे सुसंस्कृत व्यक्ति कभी खड़ा नहीं होगा। सुख संबंध सुखसाधनों से नही ंतो व्यक्ति के अंतरात्मा से है। आज इन्सानियत कम होती दिख रही है। आज इस भौतिक संस्कृति के द्वारा दुनिया के समक्ष खड़े किए सवालों के जवाब श्रीकृष्ण की गीता ने कई हजार साल पहले देकर रखें हैं।

भारतीय साहित्य तथा लोक कृष्ण के दो व्यक्तित्वों का विचार करते हैं। एक याने गोपाल कृष्ण ओर दूसरा याने गीता बताने वाले युगंधर कृष्ण। कृष्ण ने क्या करना, कैसा बर्ताव करना यह मात्र कहा नहीं बल्कि जो कहा वही किया। खुद के व्यवहार से आदमी को बर्ताव कर दूसरों के लिए बोध खड़ा किया। अपनी जिंदगी में सभी प्रकार की भूमिका का निर्वहन किया। गायों का पालन कर गोपालक बना, यमुना के तट पर वह वादक/गायक बना, नर्तक रहा, गोपी का प्रिय रहा, गोपालकों का नेता बना, कंस, चाणूर को मारने वाला मल्ल हुआ, जरासंध के 18 बार हमले रोकनेवाला युद्धनेता हुआ। नरकासुर, मुरासुर, तृणासुर, बकासुर, व्योमासुर, शाल्व, शिशुपाल, इनका वध कर दुष्ट राजाओं से प्रजाओं को राहत दिलवाई। क्रांतिकारक एवं संपत्ति का निर्माता हुआ। महाभारत के युद्ध में हाथों में शष्त्र न लेकर अर्जुन का सारथी हुआ, तत्वों का उपदेशकर्ता हुआ, गोकुल के गोपियों से लेकर जरासंध के जेलखाने में कैदी स्त्रियों को निर्भयता सिखायी, उत्तंक, दुर्वासा, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य सरीखे महर्षियों को नम्रता सिखायी।

कृृष्ण की तीनों पत्नियां अलग अलग जमात की थीं। रूक्मिणी क्षत्रिय थीं, सत्यभामा वैश्य थीं, जांबवंती आदिवासी जमात की थीं। जरासंध को मारा उसके कारागृह में बंदी राजकन्याओं को समाज में प्रतिष्ठा और मानसम्मान दिलाया।

पांडवों ने इन्द्रप्रस्थ नगरी बसाने का कार्य शुरू किया तो कृष्ण ने द्वारका से संपत्ति का कुछ भाग पांडवों को नगर निर्माण हेतु दिया।

श्री कृष्ण ने नेतृत्व प्रदान किया वह करते समय सीदा-सादा आकृतिबंध खड़ा किया वह याने लोकसंग्रह (लिंक-स्प्छज्ञ) लोगों से जानकारियों का निष्कर्ष निकालना, मनन करना ( स्मंतद) इसी से वह लीडर बने। कृष्णनीति में कर्म याने स्वधर्म। हरेक व्यक्ति ने पति, पिता, पुत्र, मित्र, मालिक आदि इस नाते से अपने कर्तव्यों की सर्वोत्कृष्टता अर्जित करनी है। निहित कार्य उत्तम रूप से करना यह ’कर्मयोग’ इस कार्य हेतु आवश्यक ज्ञान अर्जित करना यह ’ज्ञानयोग’ और कार्य करते समय संपूर्ण रूप से उस कार्य में एकाग्रचित्त होना याने ’भक्तियोग’ । तत्वज्ञान और वर्तन-आचरण इनमें एकरूपता थी।

हम लोग जब श्रीकृष्ण को भगवान मानते हैं तो उनमें विद्यमान मानवीय गुण आत्मसात करने की कठिन जिम्मेदारी से छुटकारा पा लेते हैं।

शुरू में श्रीकृष्ण के पास न सेना थी, ना सामग्री लेकिन कृष्ण कभी रूके नहीं कल्पना, साहस, प्रचंडश्रम और उत्तम नेतृत्व लेकर कृष्ण आगे ही जाते रहे। कृष्ण एक चतुरस्त्र, व्यक्तिमत्वयुक्त महामानव थे। वह चारों ही वर्ण यशस्वी रूप से जिए। एक प्रगल्भ ब्राह्मण इस नाते से गीता बताई। कंस, शिशुपाल आदि नराधमों की बलि चढ़ाकर, दुर्बलों को बल प्रदान करते हुए श्रीकृष्ण ने अपना क्षत्रियत्व सिद्ध किया। द्वारका नगरी बसाकर अपना वैशत्व सिद्ध किया और बड़े लोगों की सेवा कर उनका आदरातिथ्य करते हुए उन्होंने अपना शूद्रत्व सिद्ध किया।

कुछ विद्वान कहते हैं कि आज पुराने जीवन मूल्य उध्वस्त हो गये हैं। आज यंत्र युग-तंत्र युग-विज्ञान युग है।  युग के अनुसार अब नये मूल्य स्थापित हो रहे हैं। परन्तु यह केवल आभास है। जीवन के मूल्य सनातन और चिरन्तन होते हैं। उनका बाह्य स्वरूप, उन्हें प्रकट करने के साधन, परिस्थिति, परिणाम, क्रम ये बातें बदलती होंगी परन्तु मूल्य वे ही हैं। और भविष्य में भी वही रहेंगे। पात्र के आकार से जिस प्रकार पानी बदलता नहीं , काष्ठ के प्रकार से जैसे अग्नितत्व बदलता नहीं वैसे ही आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक अथवा अन्य कोई परिवर्तित परिस्थिति से जीवन मूल्य नहीं बदलते हैं।

महाभारत का इतिहास और साथ ही भारतवर्ष का इतिहास भावमूलक है। महाभारत आर्य राष्ट्र का अखण्ड स्फूर्तिप्रद सांस्कृतिक ज्ञानकोश है और उसमें अखिल मानवता को कल्याण का मार्गदर्शन करने की शक्ति है। आज अखिल मानवता की छीछालेदर हो रही है। उसमें मानवता का पुनरू़द्धार करने तथा उसका मंगलमय निर्माण करने की लिए जिस तत्वज्ञान की तथा जिन मूल्यों की आवश्यकता है उसकी पूर्ति तत्वज्ञ श्रीकृष्ण की भूमिका से प्रगट होती है। मानवता के प्रति किया गया भारतीय राष्ट्र का महान कार्य  महाभारत ने प्रदर्शित किया है। वह महान कार्य मानवता में देवजीवन उत्पन्न करना है। मानवता के अपने इस महान कार्य को और इतिहास के प्रवाह के अनुसार अपने कन्धों पर खड़े हुए कार्य को पूर्ण करना स्वतंत्र भारतीय राष्ट्र का कर्तव्य है। इसके लिए उन जीवन मूल्यों पर अधिष्ठित , संगठित, सामथ्र्य संपन्न ओर एकात्म राष्ट्र जीवन भारतवर्ष में उत्पन्न करना आवश्यक है। भारत की भावी सन्तानों के लिए श्रीकृष्ण के पूर्णावतार का यही संदेश है।

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