पण्डित दीनदयाल उपाध्याय

deendayalआज भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय परिषद का कालीकट में अधिवेषण संपन्नता की ओर है। भाजपा जिस विचारधारा की प्राणवायु लेकर कार्यरत है, पूर्व में जनसंघ इस नाम से दल कार्यरत था। दीनदयालजी 1967 दिसम्बर में कालीकट में ही अध्यक्ष पद पर निर्वाचित हुए थे। आज सुखद संयोग है कि उनका जन्मशती वर्ष चल रहा है। इसी स्थान पर करीब 5 दशक पूर्व दीनदयाल जी अध्यक्ष चुने गये थे और उनकी आकार दी गयी विचारधारा की अनुगामी भाजपा सरकार के मुखिया के रूप में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी इस अधिवेशन में उपस्थित हैं।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी देश के गौरवशाली अतीत से भव्य भविष्य को जोड़ने वाले महान शिल्पी थे। प्राचीन भारतीय जीवन दर्शन के आधार पर युगानुरूप नूतन व्यवस्थाएँ, मौलिक चितंन और दार्शनिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण व्यवहारिक व्यवस्थाएँ उन्होने प्रस्तुत किया। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में जनसाधारण के सुख दुःख से वे समरस हुए थे। सरल व्यवहार, सादा जीवन उच्च विचार, ध्येययुक्त अंतःकरण और कर्मठता की मूर्ती थे। दीनदयाल जी इतने नम्र और सरल थे कि उनकी महानता पहचान पाना कठिन था वे जन्मतः नहीं तो कर्मतः महान थे। उन्होने संघर्षपूर्ण जीवन में सदैव कर्म की श्रेष्ठता को स्थापित किया। कालीकट के अधिवेशन में उन्होने संम्पूर्ण राष्ट्र को ’’चरैवेति-चरैवेति’’ का जो संदेश दिया उसे उन्होने स्वंय अपने जीवन में साकार कर लिया था।

25 सिंतम्बर 1916 को श्री दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्म हुआ उनके पिता श्री भगवती प्रसाद जी जलेसर रोड जिला मथुरा में रेलवे में स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे। श्री दीनदयाल जी के आयु 6 वर्ष की थी तब उनके माता पिता चल बसे। उनका पालन पोषण उनके मामा श्री राधारमण शुक्ला के घर में हुआ। विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उन्होने सीकर से अजमेर बोर्ड की मैट्रिक की परिक्षा स्वर्णपदक के साथ उत्तीर्ण की। संपूर्ण बोर्ड में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुए बाद में कानपूर से सनातन धर्म कालेज से बी.ए की परिक्षा भी उन्होने प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण की।

कानपूर में उनका संम्पर्क राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के माननीय श्री भाऊराव देवरस जी से हुआ। बाद में 1942 में रा. स्वं. संघ के कार्य हेतु लखीमपूर में दायित्व युक्त हो गये। उनकी अद्वितीय प्रतिभा, उच्च चरित्र और व्यवहार कुशलता से प्रभावित होकर स्कुल प्रबंधकों ने उन्हें प्रधानाचार्य का पद स्वीकार करने का आग्रह किया जिसे श्री दीनदयाल जी ने अमान्य कर दिया। 1951 तक वे संघ कार्य के विभिन्न दायित्वों में रहे। उन्होने समा्रट चंद्रगुप्त, जगदगुरू शंकराचार्य नामक दो पुस्तकंे लिखीं। राष्ट्रधर्म (मासिक), पांचजन्य (साप्ताहिक) का भी सम्पादन किया।

स्वतंत्रता पश्चात कांग्रेस का देश में शासन था। आर्थिक, शैक्षणिक, औद्योगिक, सामाजिक व राष्ट्रीय सोच के संदर्भ कांग्रेंस की अदूरदर्शी सोच के खिलाफ अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई जिसका प्रथम अधिवेशन श्री दीनदयाल जी के नेतृत्व में संपन्न हुआ। पश्चात वे अ.भा. महामंत्री चुने गये। 1967 तक वे इस दायित्व का निर्वहन करते रहे। डाॅ. मुखर्जी प. दीनदयाल जी की संगठन क्षमता से इस कदर प्रभावित हुए कि कानपूर अधिवेशन के बाद उनके मुंह से यही उद्गार निकले कि अगर उनके पास और दो दीनदयाल हांे तो वे भारत की राजनीति का रूप बदल देंगे। दुर्भाग्य से शीघ्र बाद ही डाॅ. मुखर्जी की मृत्यु हो गयी और भारत के राजनीतिक रूप को बदल देने की जिम्मेदारी स्वयं प.दीनदयाल जी के कन्धों पर आ पड़ी। उन्होने इस कार्य का इतने चुपचाप और विशिष्ट ढंग से पूरा किया कि जब 1967 के आम चुनाव हुए तब तक जनसंघ राजनीतिक दलों में दूसरे क्रमांक पर पहुँच गया।

दीनदयाल जी अपने कपड़े स्वंय ही धोते थे। वे स्वभाव से इतने सादे कि जब तक बनियान की चिंदी-2 नहीं उड़ जाती थी वे नयी बनियान बनवाने के लिए तैयार नहीं होते थे। लखनऊ से प्रकाशित पांचजन्य साप्ताहिक और स्वदेश दैनिक के संपादक के रूप में वह न केवल पत्रों का सम्पादन करते थे अपितु आवश्यक होने पर कम्पोज भी करते थे। मशीन भी चला लेते थे और बाइन्डर तथा डिस्पैचर का कार्य भी कर लेते थे।

यद्यपि देखने में वे अत्यन्त सामान्य व्यक्ति प्रतीत होते थे परन्तु मौलिक कल्पनाएँ करने की दृष्टि से अपने शब्दों की सार्थकता की दृष्टि से, अथक रूप से अनवरत कार्य करने की क्षमता की दृष्टि से एवं जीवन की निर्मलता की दृष्टि से वे एक असाधारण पुरूष थे।

कालेज में दीनदयाल जी का मुख्य विषय गणित था और संस्कृत के प्रति उनका सर्वाधिक प्रेम था। किन्तु उन्होने राजनीति में प्रवेश करने के साथ ही अर्थशास्त्र के महत्व को समझा। उन्होंने इस विषय का इतना गहन अध्ययन किया कि किसी भी अर्थशास्त्री की तुलना में उन्हें इस विषय की अधिक अच्छी जानकारी हो गयी थी।

दीनदयाल जी द्वारा विभिन्न क्षेत्रों के संबंध में व्यक्त किये मत आज भी प्रासंगिक हैं। 13 अप्रैल 1964 को आर्गेनाइजर के सम्पादक को दिये गये उनके साक्षात्कार के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं को हम निम्न प्रकार से देख सकते हैं –

विकास कार्यो को पूंजी पर कम और श्रम पर अधिक निर्भर होना चाहीए और कम आयातोन्मुख भी होना चाहीए।

छोटी बांध योजनाओं पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। उसमें कम खर्चा होता अधिक गति से उपयोग होता और निश्चय ही वे जल्दी ही सम्पन्न भी होती तथा अपेक्षाकृत अधिक लाभ होता।

महाराष्ट्र कोयना बाँध भूकंप प्रभावित होने से देशवासियों ने इसका अनुभव किया। आज भी टिहरी परियोजना, सरदार सरोवर ये बडे़ बाँध चर्चा तथा वाद विवाद के विषय बने हुए है।

सरकार द्वारा आयकर तथा अन्य करों का भार इतना उँचा नहीं हो कि लोग करचोरी करें। जिसका परिणाम है भारी मात्रा में काला धन जो सट्टेबाजी के द्वारा हमारी अर्थव्यवस्था में अव्यवस्था उत्पन्न करता है।

भारत सरकार की स्वर्णनीति (फरवरी1963) देश के आर्थिंक विकास को ध्यान में रखते हुए सोने में विनियोजन का कोई औचित्य नहीं है। यह अनुत्पादक है और गत शताब्दी से यह हमारी अल्प विदेशी मुद्रा स्त्रोत पर भारी दबाव डाल रहा है। सोने में धन लगाने से न व्यक्तिगत आय में और न ही राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी। इसके अतिरिक्त रोजगार के लिए भी इससे पंूजी की व्यवस्था नहीं होती। इसलिए अगर लोग सोना खरीदने के बदले किसी उत्पादक उद्योग में अपनी बचत का विनियोजन करें तो उन्हें दोहरा लाभ होगा। इससे उन्हें न केवल ब्याज और लाभ मिलेगा अपितु विकास की एक प्रक्रिया भी पैदा होगी जिसमें बचत करने और विनियोजन करने के लिए भारी प्रोत्साहन मिलेगा। सोने की मांग में वृद्धि का पहला और सबसे बडा कारण मुद्रास्फीति है। अगर सरकार कीमतों और अपनी मुद्रा के मूल्य को स्थिर नहीं रख सकती तो धातु में विनियोजन करने की प्रवृत्ति पैदा होना अवश्यम्भावी है। दूसरी यह है कि बैकिंग और ऋण – सुविधाओं का भी अभाव है। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। गांवों में लोगों के पास अपनी बचत को सुरक्षित रखने का कोई अन्य उपाय नहीं है सिवाय इसके कि वे उसे स्र्वणाभूषणों में परिणत कर दें। वहाँ कोई बैंकिग संस्थान नहीं है जहाँ वे विनियोजन कर सकें और कोई भी बिना अमानत के उन्हें धन उधार नहीं देगा। स्वाभाविक तौर पर अगर उनके पास स्वर्ण है तो वे जरूरत पड़ने पर उसे बंधक रखकर धन प्राप्त कर सकते हैं। जहां तक भूमिहीन श्रमिकों और कारीगरों का प्रश्न है उनके लिए शायद ही कोई ऋण सुविधाएँ विद्यमान हैं। कष्ट के समय उन्हें सोने या चाँदी के आभूषणों में परिणत अपनी पिछली बचत का ही सहारा लेना पडता है।

सरकार की औद्योगिक और व्यापारिक नीतियां भी सोने की मांग में वृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं। सरकार के कराधान – कानून  और सेवाओं में व्यापक रूप से फैले भ्रष्टाचार ने भी सोने के लिए मांग बढ़ाने में योगदान किया है। कुछ खास पदों पर अधिष्ठित अधिकारियों और व्यवसायी तथा व्यापारी समाज के पास ’’काला धन’’ मौजूद है, जिसे सफेद नहीं बनाया जा सकता, इसलिए स्वर्ण में परिणत कर दिया जाता है।

हम देशवासियों ने देखा और अनुभव किया है कि देश में पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार की अर्थनीति के कारण कालाधन कितने बड़े पैमाने पर विेदशों में गया और आज भी देश में विद्यमान है। अगर दीनदयाल जी की इस सोच पर कार्य होता तो कम से कम करचोरी के रूप में कालाधन कम पैदा होता।

पी.एल. 450 समझौता

चीन युद्ध के पश्चात देश में खाद्यान्न का संकट था। तत्कालीन सरकार ने अमेरिका से इस पी.एल. 450 के अंतर्गत 6 अरब 7 करोड़ रूपये के गेंहू-ऋण के लिए समझौता किया। उस समय तत्कालीन अन्नमंत्री श्री पाटिल ने ’’यह अभूतपूर्व सफलता है ’’ ऐसी शेखी बघारी थी।

उस समय पर दीनदयाल जी ने कहा था कि इस प्रकार के समझौते से न केवल अमेरिकी कृषि उत्पादों के लिए एक बाजार मिल गया है बल्कि इस देश में आने के इच्छुक अमरीकिी उद्योगपतियों के लिए भी एक सुविधा की स्थिति पक्की हो जाती है। इन प्रस्तावों के दीर्घकालिक प्रभावों की ओर से आंखें मूंद लेना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होगा।

यद्यपि इन आयातों से हमें अपनी वर्तमान कठिनाइयों से पार पाने में सहायता मिल सकती है। इस समस्या का वास्तविक समाधान इस देश में कृषि उत्पादन में वृद्धि करने में निहित है। समय की गति के साथ हमारी विदेशी साधनों पर निर्भरता कम करनी होगी। विदेशी स्त्रोतों पर निर्भरता हमको दुर्बल, जड़ित एवं विपर्यस्त बना देगी। हमको देश में खाद्यान्न बढ़ाने में सफलता अर्जित करनी होगी बजाय हम भिक्षापात्र लेकर विश्व में घूमें।

सार्वजनिक बनाम निजी क्षेत्र

स्वतंत्र भारत में प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने रशियन माॅडल की तर्ज पर सरकार द्वारा पोषित बड़े – बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम खड़े किए। आज तक का अनुभव कहता है कि अधिकतम उपक्रम लालफीताशाही के कारण घाटे में ही चले। सार्वजनिक क्षेत्र प्रतिस्पर्धा की अनुमति नहीं देता। जहां कहीं भी सरकार प्रवेश करती है वहां एकाधिकार प्राप्त कर लेती है। एकाधिकार से अक्षमता, अभाव, भ्रष्टाचार तथा अन्य दुर्गुण पैदा होते हैं।

  भारतीय रूपये का अवमूल्यन

5 जून 1966 को तत्कालीन कांगे्रस सरकार ने भारतीय रूपये के अवमूल्यन की घोषणा की। इस संदर्भ में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एक पुस्तिक लिखी ’’ डिवैल्युएशन-ए ग्रेट फाॅल ’’

एक गलत आर्थिक नीति के परिणामस्वरूप हमको विदेशी शासन (अमेरिका, रूस, विश्वबैंक) के दबाव में अवमूल्यन करना पड़ा। वह मानते थे कि साम्राज्यवादी स्पर्धिक कारणों से हमने उनके समक्ष घुटने टेके। वे मानते थे कि लोकतंत्र तथा राष्ट्र दोनों को अवमूल्यित कर सम्प्रभुता को धक्का दिया। अवमूल्यन की इस इस स्थिति तक पहुंचने के दीनदयाल जी निम्न कारण मानते थे।

             निरंतर घाटे की अर्थव्यवस्था।

             विदेशी धन पर निर्भरता।

             मुद्रास्फीति।

             डाॅलर प्रियता (विेदेशी मुद्रा का अवांछनीय प्रयोग)

             कालेधन की अभिवृद्धि।

             स्वदेशी की उपेक्षा।

             आयात निर्भरता और सुस्त निर्यात।

             वृहत यंत्रीकृत औद्योगीकरण।

आज भी सरकार मुद्रा अवमूल्यन करती है तो उपरोक्त कारण सटीक मालूम होते हैं।

हिन्दी – स्वभाषा और सुभाषा

हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में उपयुक्त माध्यम माना गया । वस्तुतः संविधान स्वीकृत होने के बहुत पहले से ही उसे यह स्थान प्राप्त था। अगर संस्कृत विद्वानों और भद्रपुरूषों की संपर्क भाषा थी तो सामान्य लोगों की संपर्क भाषा हिन्दी थी। यह स्मरण रखना चाहिए कि अगर अंग्रेजी को हराना है तो हमें राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना को सन्तुष्ट करना होगा। अंग्रेजी भारतीय भाषा नहीं बन सकती। अगर हमारा राष्ट्रीय जीवन अंग्रेजी में निहित आदर्शों के अनुसार आयोजन और मार्गदर्शन से चलता है तो यह हमारी मानसिक दासता का चिह्न है। जितनी जल्दी हम इससे मुक्ति पा लें, उतना ही अच्छा।इन आदर्शों का पालन और उन्नयन कर हम राष्ट्रभिमान नहीं पैदा कर सकते। हम पाश्चात्यों के मार्गों और पद्धतियों का अनुकरण कर केवल उनका मर्कटानुकरण कर सकते हैं अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं प्रकट कर सकते। जब तक अंग्रेजी जारी रहती है तब तक हम अपने सांस्कृतिक पुनरूद्धार की जीवनदायिनी मुक्त हवा में सांस नहीं ले सकते। अंगे्रजी के माध्यम से पश्चिम की नकल करके हम विश्व को जो कुछ दे सकते हैं उससे कई गुना अधिक मूल्यवान योगदान हम अपनी भाषाओं के द्वारा दे सकते हैं।

 जनतंत्र और राजनीतिक पार्टियां-

अधिकांश भारतीय जनता जनतांत्रिक जीवन की आकांक्षी है। किसी भी देश में अनुशासित पार्टियां और निष्ठावान तथा देशभक्त नेतृत्व संसदीय जनतंत्र की सफलता के अपरिहार्य अंग हैं। उन्हांेने जनतंत्र को सफल बनाने के लिए स्वतंत्र प्रेस, स्वतंत्र न्यायपालिका और स्वच्छ एवं सक्षम प्रशासन को भी आवश्यक बताया। देश में कार्यकलाप में सुधार चाहते हैं तो हमें सबसे पहले राजनीतिक पार्टियों की ओर ध्यान देना होगा। आज राजनीतिक पार्टियां सैद्धान्तिक आधार पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत या गुण के आधार पर गठित होती हैं। आज राजनीति साधन नहीं रह गयी है बल्कि वह स्वयं साध्य बन गयी है। आज हमारे बीच ऐसे लोग विद्यमान हैं जो निश्चित ही सामाजिक और राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति करने की बजाय राजनीतिक सत्ता के लिए होड़ में अधिक व्यस्त हैं। यही कारण है कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियां जनता को सुसंगठित बनाने और अव्यवस्थाओं में व्यवस्था का निर्माण करने के बदले वर्तमान अव्यवस्था में केवल और वृद्धि करती हैं। अपने पास आने वाले लोगों के दृष्टिकोणों की कोई चिन्ता न करते हुए वे केवल इस बात की चिन्ता करती हैं कि उनके अनुयायियों की संख्या बढ़े।

भिन्न भिन्न राजनीतिक पार्टियों को अपने लिए एक दर्शन (सिद्धान्त या आदर्श) का क्रमिक विकास करना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पार्टी का दर्शन केवल पार्टी घोषणापत्र के पृष्ठों तक ही सीमित न रह जाए। सदस्यों को उन्हें समझना चाहिए ओर उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए निष्ठापूर्वक जुट जाना चाहिए।

      चुनाव में उम्मीद्वार,दल एवं सिद्धान्त सभी महत्वपूर्ण

चुनाव में उम्मीद्वार यह एक अच्छा आदमी चाहिए। किन्तु एक अच्छा आदमी किसी बुरी पार्टी में रहकर प्रभावकारी नहीं सिद्ध होगा। किंतु अच्छी पार्टी कौन है? स्पष्ट है वह जो व्यक्तियों का केवल समुच्चय मात्र नहीं है, बल्कि सत्ता हस्तगत करने की इच्छा से  अलग एक विशिष्ट उद्देश्य से युक्त अस्तित्व वाली संस्था है। ऐसी पार्टी के सदस्यों के लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं, साधन होनी चाहिए। पार्टी के छोटे-बड़े सभी कार्यकर्ताओं में किसी उद्देश्य के प्रति निष्ठा होनी चाहिए। निष्ठा से स्वार्पण और अनुशासन की भावना आती है। अनुशासन का अर्थ केव कतिपय कार्य करने या न करने की बाह्य एकरूपता नहीं है। ऊपर से आप जितना ही अनुशासन लायेंगे पार्टी की आंतरिक शक्ति उतनी ही कम होगी। किसी पार्टी के लिए अनुशासन का वही स्थान है जो समाज के लिए धर्म का है।

अगर कार्यकर्ताओं में निष्ठा और अनुशासन की भावना रही तो पार्टी के अन्दर कोई गुट या मतभेद नहीं होगा। जबा पार्टी का हित स्वहित के आगे दब जाता है, तब गुटबाजी शुरू हो जाती है। यह एक अहंकारी एवं विकृत चिन्तन की सामाजिक अभिव्यक्ति है। मतभेदों से जर्जर पार्टी अप्रभावकारी बन जाती है और कार्य करने की सारी क्षमता खो देती है।

एक अच्छी पार्टी को कतिपय आदर्शों से आबद्ध होना चाहिए और उसकी सारी नीतियां उन्हीं आदर्शों की उपलब्धि के दृष्टिकोण से तैयार की जानी चाहिए। राजनीतिक पार्टियां और नेता अपने व्यवहार के द्वारा राजनीतिक जीवन का मूल्य निर्धारण करते हैं, व नियमों की स्थापना करते हैं। जनतंत्र का अर्थ मात्र चुनाव नहीं है। इसके लिए सुसंगठित जनता, संगठित पार्टियों तथा राजनीतिक व्यवहार की सुव्यवस्थित परम्पराओं की आवश्यकता होती है।

एक अच्छी पार्टी को यथार्थवादी कार्यक्रम भी रखने चाहिए। अन्ततः कार्यक्रम का ही क्रियान्वयन होता है।

उम्मीद्वार , सिद्धान्त, पार्टी कार्यक्रम पर एकीकृत ढंग से विचार करना चाहिए। हर पहलू से आदर्श की स्थापना कठिन हो सकती है किन्तु यथासंभव अधिकाधिक संयोजन किया जा सकता है।

  सरकार पर अधिकाधिक निर्भरता

अगर आज सरकार पर अति निर्भरता की मनोवृत्ति है तो इसके अधिक आर्थिक दुष्परिणाम होते हैं। हर चीज के लिए सरकार की ओर देखने की मनोवृत्ति नहीं होनी चाहिए। जनता को आत्मनिर्भर बनना चाहिए और अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार पर नहीं निर्भर रहना चाहिए। भारतीय कल्पना के अनुसार सरकार का अत्यंत सीमित कार्य है।मनुष्य से जिन चार पुरूषार्थों के पालन की अपेक्षा की है, राजनीति में उसमें से एक पुरूषार्थ का केवल एक अंग है। यह माना जाता है कि सरकार और प्रशासन के कार्य स्थानीय स्तर पर चलते हैं।

  हर हाथ को काम

’प्रत्येक को काम’ अर्थव्यवस्था का आधारभूत लक्ष्य होना चाहिए अर्थात स्वस्थ और सवय व्यक्ति के लिए अपनी गृहस्थाश्रम की आयु में जीविकोपार्जन की व्यवस्था होनी ही चाहिए। भगवान ने हाथ तो दिए हैं, परन्तु वे स्वतः उत्पादक नहीं बन सकते। उनके लिए पूंजी का सहयोग चाहिए। श्रम और पूंजी का संबंध पुरूष और प्रकृति का संबंध है। सृष्टि इन दोनों की लीला है। इनमे से किसी की भी अवहेलना नहीं की जा सकती।

  नया युग – श्रम युग

राजा-रंक, पूंजीपति-श्रमिक, अमीर-गरीब सबको श्रम की साधना में जुटना होगा। श्रम से परांगमुख राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक संगठन समाप्त करने होंगे। श्रम के लिए फड़कती भुजाओं को काम देने होंगे। जहां राष्ट्रव्यापी श्रम है, वहां निर्धनता, विषमता टिक नहीं सकती। जहां समता और संपन्नता है, वहां सत्य है, वहीं शिव और सुन्दर है। नया युग श्रम युग हो, हम में से प्रत्येक इस युग निर्माण में जुट जाय, यही कामना है।

समाज के लिए जीने वाले श्रेष्ठ

देश के लिए मरने वाले लोग श्रेष्ठ हैं; पर उनसे भी श्रेष्ठ हैं समाज के लिए जीने वाले। वास्तव में जो धर्म और समाज के लिए जीता है वही धर्म और समाज के लिए मरता भी है। जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन धर्ममय बिताया है, समाजमय बिताया है, वही आखिरी समय पर समाज के लिए जीवन दे सकता है। उसके अन्दर एक ध्येयवाद, एक निःस्वार्थ सेवा का भाव और कर्तव्यपरायणता होती है।

एकात्म मानव

भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़े टुकड़े में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यवहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं। पश्चिम की समस्या का मुख्य कारण उनका जीवन के संबंध में टुकड़े टुकड़े में विचार करना और फिर उनका सबका थेगली लगा-लगाकर जोड़ने का प्रयत्न है। हम यह तो स्वीकार करते हैं कि जीवन में अनेकता अर्थात विविधता है, किन्तु उसके मूल में निहित एकता को खोज निकालने का हमने सदैव प्रयत्न किया है। यह पूर्णतः वैज्ञानिक है। विज्ञानवेत्ता का प्रयत्न रहता है कि वह जगत में दिखने वाली अव्यवस्था में से व्यवस्था ढूंढकर निकाले। उनके अनुसार भारतीय संस्कृति की कल्पना पूर्ण मानव की एकात्ममानव की कल्पना है, जो हमारा आराध्य तथा आराधना का साधन दोनों है।

इस महान व्यक्तित्व को , नवदधीचि को मेरा शत-शत नमन।

 

 

Leave a Reply